महाभारत आदि पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-19

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चतुःषष्टितम (64) अध्‍याय: आदि पर्व (अंशावतर पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतुःषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

ब्राम्हणों द्वारा क्षत्रीय वंश की उत्पत्ति और वृद्वि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन; असुरों का जन्म और उनके भार से पीडि़त पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना तथा ब्रह्माजी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश

जनमेजय बोले- ब्रह्मन् ! आपने यहां जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहां नहीं लिये हैं, उन सब सहस्त्रों राजाओं का मैं भलिभांति परिचय सुनना चाहता हूं। महाभाग ! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्‍य की सिद्वि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये। वैशम्पायनजी ने कहा- राजन् ! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। स्वयंभू ब्रह्माजी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा। पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रीय शून्य कर दिया था, क्षत्रीय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राम्हणों की शरण ग्रहण की थी। नररत्न! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; न तो कामवश न बिना ऋतुकाल के ही। राजन्! उन सहस्त्रों क्षत्राणियों ने ब्राम्हणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रीय कुल वृद्वि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रीय कुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राम्हणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रीय संतान की उत्पत्ति और वृद्वि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। तदनन्तर जगत में पुनः ब्राहम्ण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामना वश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियां से संयोग करते थे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्त्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे। भूपाल ! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे। गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। जब पुनः क्षत्रीय शासक धर्म पूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रूचिकर प्रतीत होने लगा। उस समय सहत्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। राजन् ! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता थ। कोई भी पुरूष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ ! ऐसी व्यवस्थ हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रीयलोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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