महाभारत आदि पर्व अध्याय 62 श्लोक 38-53

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द्विषष्टितम (62) अध्‍याय: आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्विषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद

तात ! इस महाभारत में ॠषियों तथा गन्‍धर्वों एवं राक्षसों की कथाऐं हैं। इसमें विभिन्न प्रसंगों को लेकर विस्‍तारपूर्वक वाक्‍य रचना की गयी है। इसमें पुण्‍य तीर्थों, पवित्र देशों, वनों, पर्वतों, नदियों और समुद्र के भी माहात्‍म्‍य का प्रतिपादन किया गया है ।। पुण्‍य प्रदशों एवं नगरों का भी वर्णन किया गया है। श्रेष्ठ उपचार और अलौकिक पराक्रम का भी वर्णन है। इस महाभारत में महर्षि व्‍यास ने सत्‍कार-योग (स्‍वागत-सत्‍कार के विविध प्रकार) का निरुपण किया है तथा रथसेना, अश्व-सेना और गज सेना की व्‍यूह रचना तथा युद्ध कौशल का वर्णन किया है। इसमें अनेक शैली की वाक्‍य योजना- कथोप-कथन का समावेश हुआ है। सारांश यह है कि इस ग्रन्‍थ में सभी विषयों का वर्णन है। जो श्राद्ध करते समय अन्‍त में ब्राह्मणों को महाभारत के श्लोक एक वतुर्थांश भी सुना देता है, उसका किया हुआ वह श्राद्ध अक्षय होकर पितरों को अवश्‍य प्राप्त हो जाता है ।। दिन में इन्द्रियों अथवा मन के द्वारा जो पाप बन जाता है अथवा मनुष्‍य जानकर या अनजान में जो पाप कर बैठता है वह सब महाभारत की कथा सुनते ही नष्ट हो जाता है। इसमें भरतवंशियों के महान् जन्‍म-वृत्तान्‍त का वर्णन है, इसलिये इसको ‘महाभारत’ कहते हैं ।जो महाभारत नाम का यह निरुक्त (व्‍युत्‍पत्तियुक्त अर्थ) जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। वह भरतवंशी क्षत्रियों का महान् और अद्भुत इतिहास है। अत: निरन्‍तर पाठ करने पर मनुष्‍यों को बड़े-बड़े पाप से छुड़ा देता है। शक्तिशाली आप्तकाम मुनिवर श्रीकृष्‍णद्वैपायन व्‍यासजी प्रति-दिन प्रात:काल उठकर स्‍नान-संध्‍या आदि से शुद्ध हो आदि से ही महाभारत की रचना करते थे। महर्षि तपस्‍या और नियम का आश्रय लेकर तीन वर्षों में इस ग्रन्‍थ को पूरा किया है। इसलिये ब्राह्मणों को भी नियम में स्थिर होकर ही इस कथा का श्रवण करना चाहिये। जो ब्राह्मण श्रीव्‍यासजी की कही हुई इस पुण्‍यदायिनी उत्तम भारती कथा का श्रवण करायेंगे और जो मनुष्‍य इसे सुनेंगे, वे सब प्रकार की चेष्टा करते हुए भी इस बात के लिये शोक करने योग्‍न नहीं हैं कि उन्‍होंने अमुक कर्म क्‍यों किया और अमुक कर्म क्‍यों नहीं किया ।धर्म की इच्‍छा रखने वाले मनुष्‍य के द्वारा यह‍ सारा महाभारत इतिहास पूर्णरुप से श्रवण करने योग्‍य है। ऐसा करने से मनुष्‍य सिद्वि को प्राप्त कर लेता है । इस महान् पुण्‍यदायक इतिहास को सुनने मात्र से ही मनुष्‍य को जो संतोष प्राप्त होता है, वह स्‍वर्गलोक प्राप्त कर लेने से भी नहीं मिलता। जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य श्रद्धापूर्वक इस अद्भुत इतिहास को सुनता और सुनाता है, वह राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है । जैसे ऐश्वर्यपूर्ण समुद्र और महान् पर्वत मेरु दोनों रत्नों की खान कहे गये हैं, वैसे ही महाभारत रत्नस्‍वरुप कथाओं और उपदेशों का भण्‍डार कहा जाता है । यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है। यह सुनने योग्‍य तो है ही, सुनते समय कानों को सुख देने वाला भी है। इसके श्रवण से अन्‍त:करण पवित्र होता और उत्तम शील-स्‍वाभाव की वृद्धि होती है। राजन् ! जो वाचक को यह महाभारत दान करता है, उसके द्वारा समुद्र से घिरी हुई सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी का दान सम्‍पन्न हो जाता है। जनमेजय ! मेरे द्वारा कही हुई इस आनन्‍द दायिनी दिव्‍य कथा को तुम पुण्‍य और विजय की प्राप्ति के लिये पूर्णरुप से सुनो ।। प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इस ग्रन्‍थ का निर्माण करने वाले महामुनि श्रीकृष्‍णद्वैपायन ने महाभारत नामक इस अद्भुत इतिहास को तीन वर्षों में पूर्ण किया है।भरतश्रेष्ठ ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्‍बन्‍ध में जो बात इस ग्रन्‍थ में है, वही अन्‍यत्र भी है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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