महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-20
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
व्यासजी कथा भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से महाराज युधिष्ठिर के नगर में प्रवेश
युधिष्ठिर बोले भगवान महामुने द्विज श्रेष्ठ में चारों वर्णों के संपूर्ण धर्म के तथा राजधर्म का भी विस्तारपूर्वक वर्णन सुनना चाहता हूँ । द्विजश्रेष्ठ आपत्तिकाल से मुझे किसी नीति से काम लेना चाहिए धर्म के अनुकूल मार्ग पर दृष्टि रखते हुए में किस प्रकार इस पृथ्वी पर विजय पा सकता हूँ । भक्ष्य और अभक्ष्य से रहित, उपवास स्वरुप प्रायश्चित की चर्चा बडी उत्सुकता पैदा करने वाली है । यह मेरे हृदय में हर्ष सा उत्पन्न कर रही है । एक ओर धर्म का आचरण और दूसरी और राज्य का पालन ये दोनों सदा एक दूसरे के विरुद्ध है यह सोचकर मुझे निरंतर चिंता बनी रहती है और मेरे चित्त मोह छा रहा है । वैशम्पायनजी कहते हैं महाराज तब वेदत्ताओं में श्रेष्ठ महात्माओं सबसे प्राचीन नारदजी की और देखकर युधिष्ठिर से कहा- महाबाहू नरेश्वर यदि तुम धर्म का पूर्णरुप से विवेचन सुनना चाहते हो तो गुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म के पास जाओ । गरुण पुत्र भीष्म संपूर्ण धर्मों के ज्ञाता और सर्वज्ञ है धर्म रहस्य के विषय में तुम्हारे मन में स्थित हुए संपूर्ण संदेह का निवारण करेंगे ।
जिन्हें दिव्य नदी त्रिपथगा गंगादेवी ने जन्म दिया जिन्होंने इंद्र आदि संपूर्ण देवताओं के साक्षात दर्शन किया है तथा जिन शक्ति साली भिष्म ने बृहस्पति आदि देवर्षियों को बारंबार अपनी सेवा द्वारा संतुष्ट करके राजनीति का अध्ययन किया है उसके पास चलो। शुक्राचार्य जिस शास्त्र को जानते हैं तथा देवगुरु विप्रवर बृहस्पति को जिस शास्त्रों का ज्ञान है, वह संपूर्ण शास्त्र कुरुक्षेष्ठ भीष्म व्याख्या सहित पालन किया है ।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके महाबाहु भीष्म ने भृगुवंशी च्यवन तथा महर्षि बसिष्ठ से वेदान्डों सहित वेदों का अध्ययन किया है। इन्होंने पूर्वकाल में ब्रह्माजी के पुत्र तेजस्वी सनत्कुमार जी से जो हाथ में आध्यात्म गति के तत्व को जानने वाले हैं आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा पाई थी। पुरुष प्रवर भीष्म ने मार्कण्डेयजी के मुख से संपूर्ण गति धर्म का ज्ञान प्राप्त किया और परशुराम कथा इंद्र से अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा पाई है । मनुष्यों में उत्पन्न होकर भी इन्होंने मृत्यु को अपनी इच्छा के अधिन कर लिया है संतान हीन होने पर भी उनको प्राप्त होने वाली पुण्य लोक देवलोक में विख्यात है । पुण्यात्मा ब्रह्मर्षि सदा उनके सभासद रहे ज्ञान यज्ञ में कोई भी ऐसी बात नहीं है जिसका उन्हें हो । सुक्ष्म धर्म और अर्थ के तत्व को जानने वाले वे धर्मवेता भीष्म तुम्हें धर्म के उपदेश देंगे। वे धर्म की आत्मा अपने बड़ों का प्राणों का परित्याग करे इसके पहले ही तुम पास चलो। उनके ऐसा कहने पर परम बुद्धिमान दूरदर्शी कुंती कुमार युधिष्ठिर ने वक्ताओं में श्रेष्ठ सत्यवती नंदन व्यासजी से कहा। युधिष्टिर बोले– मुने मैं अपने भाई बंधुओं का ये महान रोमांचकारी संघर्ष करके संपूर्ण लोकों के अपराधी बन गया हूँ मैंने इस संपूर्ण भुमण्डल का विनाश किया है भीष्म जीत सरलता पूर्वक युद्ध करने वाले थे तो भी युद्ध में उन्हें छल से मरवा डाला अब फिर उन्हीं से में अपनी शंकाओं को पूंछू क्या इसके योग में रह गया हूँ अब मैं किस हेतु से उन्हें मुंह दिखा सकता हूँ । वैशम्पायन जी कहते हैं- जन में जय तब परम बुद्धिमान महाबाहु यदु श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने चारों वर्णों के हित की इच्छा से नृपती शिरोमणि युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा।
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