महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 81 श्लोक 43-57

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एकाेेशीतितम (81) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकाेेशीतितम अध्याय: श्लोक 43-57 का हिन्दी अनुवाद

भरतश्रेष्ठ ! शत्रुओं को तपने वाले अर्जुन को सामने पाकर तीखे बाणों से मारी जाती हुई आपकी उस सेना ने युद्ध नहीं छोड़ा। भरतभूषण ! वहां हमलोगों ने कौरवयोद्धाओं का यह अदभुत पराक्रम देखा कि वे मारे जाने पर भी अर्जुन को छोड़ नहीं रहे थे।। सव्यसाची अर्जुन को इस प्रकार पराक्रम प्रकट करते देख समस्त कौरव सैनिक कर्ण के जीवन से निराश हो गये। गाण्डीवधारी अर्जुन के द्वारा परास्त हुए कौरव योद्धा समरांगण में उनकी बाण वर्षा को अपने लिये असह्य मानकर युद्ध से पीछे हटने लगे। बाणों से बिंध जाने के कारण वे भयभीत हो रणभूमि में कर्ण को अकेला ही छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चले; किंतु अपनी रक्षा के लिये सूतपुत्र कर्ण को ही पुकारते रहे। कुन्तीकुमार अर्जुन सैकड़ो बाणों की वर्षा करते और भीमसेन आदि पाण्डव-योद्धाओं का हर्ष बढ़ाते हुए आपके उन सैनिको को खदेड़ने लगे।। महाराज ! इसके बाद आपके पुत्र भागकर कर्ण के रथ के पास गये। वे संकट के अगाध समुद्र में डूबे रहे थे। उस समय कण ही द्वीप के समान उनका रक्षक हुआ। महाराज ! कौरव विषरहित सर्पो के समान-गाण्डीवधारी अर्जुन के भय से कर्ण के ही पास छिपने लगे।
माननीय नरेश ! जैसे कर्म करनेवाले सब जीव मृत्यु से डरकर धर्म की ही शरण लेते हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र महामना पाण्डुपुत्र अर्जुन के भय से महाधनुर्धर कर्ण की ही ओट में छिपने लगे थे। कर्ण ने उन्हें खून से लथपथ, संकट में मग्न और बाणों की चोट से व्याकुल देखकर कहा- वीरों ! डरो मत । तुम सब लोग निर्भय होकर मेंरे पास आ जाओ। अर्जुन ने बलपूर्वक आप की सेना को भगा दिया है-यह देख-कर कर्ण शत्रुओं का वध करने की इच्छा से धनुष तानकर खड़ा हो गया। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण ने कौरवसैनिकों को भागते देख खूब सोच-विचार कर लम्बी सांस लेते हुए मन-ही-मन अर्जुन के वध का निश्चय किया। तत्पश्चात् धर्मात्मा अधिरथपुत्र कर्ण ने अपने विशाल धनुष को फैलाकर अर्जुन के देखते-देखते पुनः पांचाल योद्धाओ पर धावा किया। यह देख पांचालनरेशों के नेत्र रोष से लाल हो गये। जैसे बादल पर्वत पर पानी बरसाते हैं, उसी प्रकार वे क्षणभर में कर्णपर बाणसमूहों की वर्षा करने लगे। प्राणधारियों में श्रेष्ठ मान्यवर नरेश ! तदनन्तर कर्ण के छोड़े हुए सहस्त्रों बाण पांचालों को प्राणहीन करने लगे।। महामते ! वहां मित्र का हित चाहने वाले सूतपुत्र कर्ण के द्वारा मित्र की ही भलाई के लिये मारे जाने वाले पांचालों का महान् आर्तनाद होने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में संकुलयुद्धविषयक इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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