महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 23-39

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सप्ताशीतिम (87) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्ताशीतिम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद

पुरूष सिंह कर्ण और धनंजया को एकत्र हुआ देखकर समस्त प्राणियों को किसी एक की विजय में संदेह होने लगा। दोनों ने श्रेष्ठ आयुध धारण कर रखे थे, दोनों ने ही युद्ध की कला सीखने में परिश्रम किया था और दोनों अपनी भुजाओं के शब्द से आकाश को प्रतिध्वनित कर रहे थे। दोनों के कर्म विख्यात थे। युद्ध में पुरूषार्थ और बल की दृष्टि से दोनों ही शम्बरासुर और देवराज इन्द्र के समान थे। दोनों ही युद्ध में कार्तवीर्य अर्जुन, दशरथनन्दन श्रीराम, भगवान् विष्णु और भगवान् शंकर के समान पराक्रमी थे। राजन् ! दोनों के घोडे़ सफेद रंग के थे। दोनों ही श्रेष्ठ रथपर सवार थे और उस महासमर में दोनों के सारथि श्रेष्ठ पुरूष थे। भरतश्रेष्ठ ! वहाँ सुशोभित होनेवाले महारथियों को देखकर सिद्धों और चारणों के समुदायों को बड़ा आश्चर्य हुआ। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर सेनासहित आपके पुत्र युद्ध में शोभा पानवाले महामनस्वी कर्ण को शीघ्र ही सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। इसी प्रकार हर्ष में भरे हुए धृष्टधुम्न आदि पाण्डव वीर युद्ध में अपना सानी न रखनेवाले महात्मा कुन्तीकुमार अर्जुन को घेरकर खडे़ हुए। नकुल, सहदेव, चेकितान, हर्ष में भरे हुए प्रभद्रकगण, नाना देशों के निवासी और युद्ध का अभिनन्दन करनेवाले अवशिष्ट शूरवीर-ये सब-के-सब हर्ष में भरकर एक साथ अर्जुन को चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये। वे पैदल, घुड़सवार, रथों और हाथियों द्वारा शत्रुसूदन अर्जुन की रक्षा करना चाहते थे।
उन्होंने अर्जुन की विजय और कर्ण के वध के लिये दृढ़ निश्चय कर लिया थ। राजन् ! इसी प्रकार दुर्योधन आदि आपके सभी पुत्र सावधान एवं शत्रुसेनाओं पर प्रहार करने के लिये उद्यत हो युद्धस्थल में कर्ण की रक्षा करने लगे। प्रजानाथ ! आपकी ओर से युद्धरूपी जूए में कर्ण को दाँव पर लगा दिया गया था। इसी प्रकार पाण्डवपक्ष की ओर से कुन्तीकुमार अर्जुन दाँव पर चढ़ गये थे। जो पहले के जूए दर्शक थे, वे ही वहाँ भी सभासद् बने हुए थे। वहाँ युद्धरूपी जूआ देखते हुए इन वीरों में से एक की जय और दूसरे की पराजय अवश्यम्भावी थी। उन दोनों ने युद्ध के मुहाने पर खडे़ हुए हमलोगों तथा पाण्डवों की विजय अथवा पराजय के लिये रणद्यूत आरम्भ किया था। महाराज ! युद्ध में शोभा पाने वाले वे दोनों वीर परस्पर कुपित हो एक दूसरे के वध की इच्छा से संग्राम के लिये खडे़ हुए थे। प्रभो ! इन्द्र और वृत्रासुर के समान वे दोनों एक दूसरे पर प्रहार की इच्छा रखते थे। उस समय उन दोनों ने दो महान् केतु-ग्रहों के समान अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर लिया था। भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर अन्तरिक्ष में स्थित हुए समस्त भूतों में कर्ण और अर्जुन की जय-पराजय को लेकर परस्पर आक्षेप युक्त विवाद और मतभेद पैदा हो गया। मान्यवर ! सब लोग परस्पर भिन्न विचार व्यक्त करते सुनायी देते थे। देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षस-इन सबने कर्ण और अर्जुन के युद्ध के विषय में पक्ष और विपक्ष ग्रहण कर लिया। द्यौ (आकाश अधिष्ठा देवी) माता के समान सूतपुत्र कर्ण के पक्ष में खड़ी थी; परन्तु भूदेवी माता की भाँति धनंजय की विजय चाहती थी। पर्वत, समुद्र, सजल नदियाँ, वृक्ष तथा ओषधियाँ इन सबने अर्जुन के पक्ष का आश्रय ले रखा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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