महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 40-59

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सप्ताशीतिम (87) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्ताशीतिम अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुओं को तापने वाले वीर! असुर, यातुधान और गुह्यक-ये सब ओर से प्रसन्नचित्त हो गर्ण के ही पक्ष में आ गये थे। महाराज ! मुनि, चारण, सिद्ध, गरूड़, पक्षी, रत्न, निधियाँ, उपदेव, उननिषद्, रहस्य, संग्रह और इतिहास पुराणसहित सम्पूर्ण सर्पगण्, अपने वंशजों सहित कद्रू की संतानें, विषैले नाग, ऐरावत, सौरभेय और वैशालेय सर्प- ये सब अर्जुन के पक्ष में हो गये। छोटे-छोटे सर्प कर्ण का साथ देने लगे। राजन् ! ईहामृग, व्यालमृग, मंगलसूचक मृग, पशु और पक्षी, सिंह तथा व्याघ्र-ये सब-के-सब अर्जुन की ही विजय का आग्रह रखने लगे। वसु, मरूद्रण, साध्य, रूद्र, विश्वेदेप, अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, सोम, पवन, और दसों दिशाएँ अर्जुन के पक्ष में हो गये एवं (इन्द्र के सिवा अन्य) आदित्यगण कर्ण के पक्ष में हो गये। महाराज ! वैश्य, शूद्र, सूत तथा शंकर जाति के लोग सब प्रकार से उस समय राधापुत्र कर्ण को ही अपनाने लगे। अपने गणों और सेवकों सहित देवता, पितर, यम कुवेर और वरूण अर्जुन के पक्ष में थे। ब्राह्यण, क्षत्रिय, यज्ञ और दक्षिणा आदि ने भी अर्जुन का ही साथ दिया। प्रेत, पिशाच, मांसभोजी पशु-पक्षी, राक्षस, जलजन्तु, कुत्ते और सियार-ये कर्ण के पक्ष में हो गये।
राजन् ! देवर्षि, ब्रह्यर्षि तथा राजर्षियों के समुदाय पाण्डुपुत्र अर्जुन के पक्ष में थे। तुम्बुरू आदि गन्धर्व, प्राधा और मुनि ने उत्पन्न हुए गन्धर्व एवं अप्सराओं के समुदाय भी अर्जुन की ही ओर थे। शुद्ध अप्सराओं सहित देवदूत, गुह्यक, और मनोरम पवित्र सुगन्ध-ये सब किरीटधारी अर्जुन के पक्ष में आ गये तथा मन को प्रिय न लगनेवाले जो दुर्गन्धयुक्त पदार्थ थे, उन सब ने कर्ण का आश्रय लिया था। विनाशोन्मुख प्राणियों के समक्ष जो विपरित अनिष्ठ प्रकट होते हैं, अन्तकाल में विपरित भाव का आश्रय लेने वाले पुरूष में उसकी मृत्यु की घड़ी आने पर जो भाव प्रवेश करते हैं, वे सभी भाव अरिष्ट एक साथ सूतपुत्र कर्ण के भीतर प्रविष्ट हुए। नरव्याघ्र ! नृपश्रेष्ठ ! ओज, तेज, सिद्धी, हर्ष, सत्य, पराक्रम, मानसिक संतोष, विजय तथा आनंद-ऐसे ही भाव और शुभ निमित्त उस युद्धसागर में विजयशील अर्जुन के भीतर प्रविष्ट हुए थे।। ब्राह्यणों सहित ऋषियों ने किरीटधारी अर्जुन का साथ दिया। महाराज ! देवसमुदायों और चारणों के साथ सिद्ध गण दो दलों में विभक्त होकर उन दोनों नरश्रेष्ठ अर्जुन और कर्ण का पक्ष लेने लगे। वे सब लोग विचित्र एवं गुणवान् विमानों पर बैठकर कर्ण और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध देखने के लिये आये थे।। क्रीड़ीमृग, पक्षीसमुदाय तथा हाथी, घोडे़, रथ और पैदलों सहित दिव्य मनीषी पुरूष वायु तथा बादलों को वाहन बनाकर कर्ण और अर्जुन का युद्ध देखने के लिये वहाँ पधारे थे।
महाराज ! देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, यक्ष, पक्षी, वेदज्ञ महर्षि, स्वधाभोजी पितर, तप, विद्या तथा नाना प्रकार के रूप और बल से सम्पन्न ओषधियाँ-ये सब-के-सब कोलाहल मचाते हुए अंतरिक्ष में खडे़ हुए थे। ब्रह्यर्षियों तथा प्रजापतियो के साथ ब्रह्या और महादेवजी भी दिव्य विमान पर स्थित हो उस प्रदेश में आये।। उन दोनों महामनस्वी वीर कर्ण और अर्जुन को एकत्र हुआ देख उस समय इन्द्र बोल उठे-अर्जुन कर्णपर विजय प्राप्त करे। यह सुनकर सूर्यदेव कहने लगे-नहीं, कर्ण ही अर्जुन को जीत ले। मेरा पुत्र कर्ण युद्धस्थल में अर्जुन को मारकर विजय प्राप्त करे। (इन्द्र बोले-) नहीं, मेरा पुत्र अर्जुन ही आज कर्ण का वध करके विजय श्री का वरण करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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