महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 60-81

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सप्ताशीतिम (87) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्ताशीतिम अध्याय: श्लोक 60-81 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार सूर्य और इन्द्र में विवाद होने लगा। वे दोनों देवश्रेष्ठ वहाँ एक-एक पक्ष में खडे़ थे। भारत ! देवताओं और असुरों में भी वहाँ दो पक्ष हो गये थे। महामना कर्ण और अर्जुन को युद्ध के लिये एकत्र हुआ देख देवताओं, ऋषियों तथा चारणों सहित तीनों लोक के प्राणी काँपने लगे।। सम्पूर्ण देवता तथा समस्त प्राणी भी भयभीत हो उठे थे। जिस ओर अर्जुन थे, उधर देवता और जिस ओर कर्ण था, उधर असुर खडे़ थे। रणयूथपति कर्ण और अर्जुन कौरव तथा पाण्डव दल के प्रमुख वीर थे। उनके विषय में दो पक्ष देखकर देवताओं ने प्रजापति स्वयम्भू ब्रह्यजी से पूछा- देव ! इन कौरव-पाण्डव योद्धाओं में कौन विजयी होगा ? भगवन् ! हम चाहते हैं कि इन दोनों पुरूषसिंह को एक सी ही विजय हो। प्रभो ! कर्ण और अर्जुन के विवाद से सारा संसार संशय में पड़ गया। स्वयम्भू ! आप हमें इसके विजय के सम्बन्ध में सच्ची बात बताइये। आप ऐसा वचन बोलिये, जिससे इन दोनों की समान विजय सूचित हो। देवताओं की वह बात सुनकर बुद्धिमान् में श्रेष्ठ इन्द्र ने देवेश्वर भगवान् ब्रह्या को प्रमाण करके यह निवेदन किया-भगवन् ! आपके पहले कहा था कि -इन दोनों कृष्णों की विजय अटल है। आपका वह कथन सत्य हो। आपको नमस्कार है। आप मुझपर प्रसन्न होइये। तब ब्रह्या और महादेव जी ने देवेश्वर इन्द्र से कहा-महात्मा अर्जुन की विजय तो निश्चित ही है।
इन्द्र ! इन्हीं सव्यसाची अर्जुन ने खाण्डव वन में अग्निदेव को संतुष्ट किया और स्वर्गलोक में जाकर तुम्हारी भी सहायता की। कर्ण दानव पक्ष का पुरूष है; अतः उसकी पराजय करनी चाहियेल्ऐसा कहने पर निश्चित रूप से देवताओं का ही कार्य सिद्ध होगा। देवेश्वर ! अपना कार्य सभी के लिये गुरूतर होता है। महामना अर्जुन सदा सत्य और क्रोध धर्म में तत्पर रहने वाले हैं; अतः उनकी विजय अवश्य होगी, इसमें संशय नहीं है। शतलोचन ! जिन्होने महात्मा भगवान् वृषभध्वज को संतुष्ट किया है, उनकी विजय कैसे नहीं होगी। -साक्षात् जगदीश्वर भगवान् विष्णु ने जिनका सारथ्य किया है, जो मनस्वी, बलवान्, शूरवीर, अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता और तपस्या के धनी हैं,उसकी विजय क्यों न होगी ? सर्वगुण सम्पन्न महातजस्वी कुन्तीकुमार अर्जुन सम्पूर्ण धनुर्वेद को धारण करते हैं; अतः उनकी विजय होगी ही; क्योंकि यह देवताओं का ही कार्य है। पाण्डव वनवास आदि के द्वारा सदा महान् कष्ट उठाते आये हैं। पुरूष प्रवर अर्जुन तपोबल से सम्पन्न और पर्याप्त शक्तिशाली हैं। ये अपनी महिमा से दैवके भी निश्चित विधान को पलट सकते हैं; यदि ऐसा हुआ तो सम्पूर्ण लोकों का अवश्य ही अन्त हो जायेगा ।
श्रीकृष्ण और अर्जुन के कुपित होने पर यह संसार कहीं टिक नहीं सकता; पुरूषप्रवर श्रीकृष्ण और अर्जुन ही निरन्तर जगत् की सृष्टि करते हैं। ये ही प्राचीन ऋषिश्रेष्ठ पर और नारायण हैं; इन पर किसी का शासन नहीं चलता । ये ही सबके नियन्ता हैं; अतः ये शत्रुओं को संताप देने में समर्थ हैं। देवलोक अथवा मनुष्यलोक में कोई भी इन दोनों की समानता करनेवाला नहीं है। देवता, ऋषि और चारणों के साथ तीनों लोक, समस्त देवगण और सम्पूर्ण भूत इनके ही नियन्त्रण में में रहनेवाले हैं। इन्हीं के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् अपने अपने कर्मो में प्रवृत्त होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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