महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-12
द्धिचत्वारिंश (42) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् !तदनन्तर उदार-बुद्धि राजा युधिष्ठिर ने जति,भाई और कुटुम्बीजनो मे से जो लोग युद्ध मे मारे गये थे, उन सबको अलग अलग श्रद्ध करवाये
महायशस्वी राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के श्राद्ध में समस्त कमनीय गुणों से युक्त अन्न, गो, धन और बहुमूल्य विचित्र रत्न प्रदान किये। युधिष्ठिर द्रौपदी को साथ लेकर आचार्य द्रोण, महामना कर्ण, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, राक्षस घटोत्कच, विराअ आदि उपकारी सुहृद, द्रुपद तथा द्रौपदीकुमारों का श्राद्ध किया। उन्होंने प्रत्येक के उद्देश्य से हजारों ब्राह्मणों को अलग-अलग धन, रत्न, गौ और वस्त्र देकर संतुष्ट किया। इनके सिवा जो दूसरे भूपाल थे, जिनके सुहृद् या सम्बन्धी जीवित नहीं थे, उन सबके उद्देश्य से राजा युधिष्ठिर ने श्राद्ध-कर्म किया। साथ ही उनके निमित्त पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने धर्मशालाएँ, प्याऊ-घर और पोखरे बनवाये।
इस प्रकार उन्होंने सभी सुहृदों के श्राद्ध-कर्म सम्पन्न कराये। उन सबके ऋण से मुक्त हो वे लोक में किसी की निन्दा या आक्षेप के पात्र नहीं रह गये। राजा युधिष्ठिर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए कृतकृत्यता का अनुभव करने लगे। धृतराष्ट्र, गान्धारी, विदुर तथा अन्य आदरणीय कौरवों की वे पहले की ही भाँति सेवा करते और भृत्यजनों का भी आदर-सत्कार करते थे। वहाँ जो कोई भी स्त्रियाँ थीं, जिनके पति और पुत्र मारे गये थे, उन सबका कृपालु कुरुवंशी राजा युधिष्ठिर बड़े आदर के साथ पालन-पोषण करते थे।। दीन-दुखियों और अन्धों के लिये घर एवं भोजन-वस्त्र की व्यवस्था करके सबके प्रति कोमलता का बर्ताव करने वाले सामथ्र्यशाली राजा युधिष्ठिर उन पर बड़ी कृपा रखते थे। इस सारी पृथ्वी को जीतकर शत्रुओं से उऋण हो शत्रुहीन राजा युधिष्ठिर सुख पूर्वक विहार करने लगे।।
« पीछे | आगे » |