महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 46 श्लोक 17-35

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षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

जो महा तेजस्वी बुद्धिमान् भीष्म दिव्यास्त्रों तथा अंगों सहित चारों वेदों को धारण करते हैं, उन्हीं के चिन्तन में मेरा मन लगा हुआ था। पाण्डुकुमार ! जो जमदग्निनन्दन परशुरामजी के प्रिय शिष्य तथा सम्पूर्ण विद्याओं के आधार हैं, उन्हीं भीष्मजी का मैं मन-ही-मन चिन्तन करता था। भरतश्रेष्ठ ! वे भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की बातें जानते हैं। धर्मज्ञों में रेष्ठ उन्हीं भीष्म का मैं मन-ही-मन चिन्तन करने लगा था। पार्थ ! जब पुरुषसिंह भीष्म अपने कर्मों के अनुसार स्वर्गलोक में चले जायँगे, उस समय यह पृथ्वी अमावस्या की रात्रि के समान श्रीहीन हो जायगी। अतः महाराज युधिष्ठिर ! आप भयानक पराक्रमी गंगानन्दन भीष्म के पास चलकर उनके चरणों में प्रणाम कीजिये और आपके मन में जो संदेह हो उसे पूछिये।। पृथ्वीनाथ ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चारों विद्याओं को, होता, उद्गाता, ब्रह्मा ओर अध्वर्यु से सम्बन्ध रखने वाले यज्ञादि कर्मों को, चारों आश्रमों के धर्मों को तथा सम्पूर्ण राजधर्मों को उनसे पूछिये।
कौरव वंश का भार संभालने वाले भीष्मरूपी सूर्य जब अस्त हो जायँगे, उस समयसअ प्रकार के ज्ञानों का प्रकाश नष्ट हो जायगा; इसलिये मैं आपको वहाँ चलने के लिये कहता हूँ। भगवान् श्रीकृष्ण का वह उत्तम और सथार्थ वचन सुनकर धर्मज्ञ युधिष्ठिर का गला भर आया और वे आँसू बहाते हुए वहाँ श्रीकृष्ण से कहने लगे - ‘माधव ! भीष्मजी के प्रभाव के विषय में आप जैसा कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें मुझे भी सुदेह नहीं है। ‘महातेजस्वी केशव ! मैंने महात्मा ब्राह्मणों के मुख से भी भीष्म जी के महान् सौभाग्य और प्रभाव का वर्णन सुना है। ‘शत्रुसूदन ! यादवनन्दन ! आप सम्पूर्ण जगत् के विधाता हैं। आप जो कुछ कह रहे हैं, उसमें भी सोचने-विचारने की आवश्यकता नहीं है। ‘माधव ! यदि आपका विचार मेरे ऊपर अनुग्रह करने का है तो हम लोग आपको ही आगे करके भीष्म जी के पास चलेंगे। ‘महाबाहो ! सूर्य के उत्तरायण होते ही कुरुकुलभूषण भीष्म देवलोक को चले जायँगे; अतः उन्हें आपका दर्शन अवश्य प्राप्त होना चाहिये। ‘आप आदिदेव तथा क्षर-अक्षर पुरुष हैं। आपका दर्शन उनके लिये महान् लाभकारी होगा; क्योंकि आप ब्रह्ममयी निधि हैं’। वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन्  ! धर्मराज का यह वचचन सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने पास ही खडत्रे हुए सात्यकि से कहा - ‘मेरा रथ जोतकर तैयार किया जाय’। आज्ञा पाते ही सात्यकि श्रीकृष्ण के पास से तुरंत बाहर निकल गये औश्र दारुक से बोले - ‘भगवन् श्रीकृष्ण का रथ तैयारद करो’। राजसिंह ! सात्यकि का यह वचन सुनकर दारुक ने मरकत, चन्द्रकान्त तथा सूर्यकानत मणियों की ज्योतिर्मयी तरंगों से विभूषित उस उत्तम रथ को, जिसका एक-एक अंग सुनकरे साजों से सजाया गया था तथा जिसके पहियों पर सोने के पत्र जड़े गये थे, जोतकर तैयार किया और हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण को इसकी सूचना दी। वह शीघ्रगामी रथ सूर्य की किरणों के पड़ने से उद्भासित हो तुरंत के उगे हुए सूर्य के समान प्रकाशित होता था, उसके भीतरी भाग को नाना प्रकार की विचित्र मणियों से विभूषित किया गया था। वह प्रतापी रथ विचित्र गरुड़चिन्हित ध्वजा और पताका को सुशोभित था। उसमें सोने के साजबाज से सजे हुए अंगों वाले, मन के समान वेगशाली, सुग्रीव और शैब्य आदि सुन्दर घोड़े जुते हुए थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में महापुरुष स्तुति विषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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