महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 40-49

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२३, १७ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('==नवतितम (90) अध्याय: कर्ण पर्व== <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

नवतितम (90) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद

भारत ! जैसे पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग और जल-ये वायु द्वारा वेगपूर्वक संचालित हो महान शब्द करने लगते हैं, उस समय वहाँ जगत के सब लोगों ने वैसे ही शब्द का अनुभव किया ओर व्यथित होकर सभी अपने-अपने स्थान से लड़खड़ाकर गिर पडे़। मुकुट गिर जाने पर श्यामवर्ण, नवयुवक अर्जुन ऊँचे शिखर वाले नीलगिरी के समान शोभा पाने लगे। उस समय उन्हें तनिक भी व्यथा नहीं हुई वे अपने केशों को सफेद वस्त्र से बाँधकर युद्ध के लिये डटे रहे। श्वेत वस्त्र के केश बाँधने के कारण वे शिखर पर फैली हुई सूर्यदेव की किरणों से प्रकाशित होने वाले उदयाचल के समान सुशोभित हुए। अंशुमाली सूर्य के पुत्र कर्ण ने जिसे चलाया था, जो अपने ही द्वारा उत्पादित एवं सुरक्षित बाणरूपधारी पुत्र के रूप में मानों स्वयं उपस्थित हुई थी, गौ अर्थात नेत्रेन्द्रिय से कानों का काम लेने के कारण जो गाकर्णा (चक्षुःश्रवा) और मुख से पुत्र की रक्षा करने के कारण सुमुखी कही गयी हैं, उस सर्पिणी ने तेज और प्राणशक्ति से प्रकाशित होने वाले अर्जुन के मस्तक को घोड़ों की लगाम के सामने लक्ष्क करके (चलने पर भी रथ नीचा होने से उसे न पाकर) उनके उस मुकुट को ही हर लिया, जिसे ब्रह्माजी ने स्वयं सुन्दररूप से इन्द्र के मस्तक का भूषण बनाया था और जो सूर्यसदृश किरणों की प्रभा से जगत को परिपूर्ण (प्रकाशित) करने वाला था।
उक्त सर्प को अपने बाणों की मार से कुचल देने वाले अर्जुन उसे पुनः आक्रमण का अवसर न देने के कारण मृत्यु के अधीन नहीं हुए। कर्ण के हाथों से छूटा वह अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी, बहुमूल्य बाण, जो वास्तव में अर्जुन के साथ वैर रखने वाला महानाग था, उनके किरीट पर आघात करके पुनः कर्ण के तरकस में घुसना ही चाहता था कि कर्ण की दृष्टि उस पर पड़ गयी। तब उसने कर्ण से कहा- कर्ण ! तुमने अच्छी तरह सोच-विचारकर मुझे नहीं छोड़ा था; इसीलिये में अर्जुन के मस्तक का अपहरण न कर सका। अब पुनः सोच-समझकर, ठीक से निशाना साधकर रणभूमि में शीघ्र ही मुझे छोड़ों, तब में अपने और तुम्हारे उस शत्रु का वध कर डालूँगा। युद्धस्थल में उस नाग के ऐसा कहने पर सूतपुत्र कर्ण ने उससे पूछा- पहले यह तो बताओ कि ऐसा भयानक रूप धारण करने वाले तुम हो कौन ? तब नाग ने कहा- अर्जुन ने मेरा अपराध किया है। मेंरी माता का उनके द्वारा वध होने के कारण मेरा उनसे वैर हो गया है। तुम मुझे नाग समझो। यदि साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी अर्जुन की रक्षा के लिये आ जाय तो भी आज अर्जुन को यमलोक में जाना ही पडे़गा। इतना कहकर सूर्य के श्रेष्ठ पुत्र कर्ण ने युद्धस्थल में उस नाग से फिर इस प्रकार कहा-मेंरे पास सर्पमुख बाण है। मैं उत्तम यत्न कर रहा हूँ और मेंरे मन में अर्जुन के प्रति पर्याप्‍त रोष भी है; अतः मैं स्वयं ही पार्थ को मार डालूँगा। तुम सुखपूर्वक यहां से पधारो। राजन् ! युद्धस्थल में कर्ण के द्वारा इस प्रकार टका-सा उत्तर पाकर वह नागराज रोषपूर्वक उसके इस वचन को सहन न कर सका। उस उग्र सर्प ने अपने स्वरूप को प्रकट करके मन में प्रति हिंसा की भावना लेकर पार्थ के वध के लिये स्वयं ही उन पर आक्रमण किया।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।