महाभारत आदि पर्व अध्याय 232 श्लोक 1-17

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द्वात्रिंशदधिकद्विशततम (232) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

  मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! मन्दपाल भी अपने पुत्रों की चिन्ता में पडे़ थे। यद्यपि वे (उनकी रक्षा के लिये) अग्निदेव से प्रार्थना कर चुके थे, तो भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पुत्रों के लिये संतप्त होते हुए वे लपिता से बोले - ‘लपिते ! मेरे बच्चे अपने घोंसले में कैसे बच सकेंगे ? ‘जब अग्नि का वेग बढे़गा और हवा तीव्र गति से चलने लगेगी, उस समय मेरे बच्चे अपने को आग से बचाने में असमर्थ हो जायँगे। ‘उनकी तपस्विनी माता स्वयं असमर्थ हे, वह बेचारी उनकी रक्षा कैसे करेगी ? अपने बच्चों के बचने का कोई उपाय न देखकर वह शोक से आतुर हो जायेगी। ‘मेरे बच्चे उड़ने और पंख फड़फड़ाने में असमर्थ हैं। उन्हें उस दशा में देखकर संतप्त हो बार-बार चीत्कार करती और दौड़ती हुई जरिता किस दशा में होगी ? ‘मेरा बेटा जरितारि कैसे होगा, सारिसृक्क की क्या अवस्था होगी, स्तम्बमित्र और द्रोण कैसे होंगे ? तथा वह तपस्विनी जरिता किय हालत में होगी ?’ भारत ! मन्दपाल मुनि जब इस प्रकार वन में (अपनी स्त्री एवं बच्चों के लिये) विलाप कर रहे थे, उस समय लपिता ने ईष्र्यापूर्वक कहा -। ‘तुम्हें पुत्रों को देखने की चिन्ता नहीं है। तुमने जिन ऋषियों के नाम लिये हैं, वे तेजस्वी अैर शक्तिशाली हैं, उन्हें अग्नि से तनिक भी भय नहीं है। ‘मेरे पास ही तुमने अग्निदेव को स्वयं अपने पुत्र सौंपे थे और उन महात्मा अग्नि ने भी उनकी रक्षा के लिये प्रतिज्ञा की थी। ‘वे लोकपाल हैं। जब बात दे चुके हैं, तब उसे झूठी नहीं करेंगे। अतः स्वस्थ पुरूष ! तुम्हारा मन अपने बच्चों की रक्षारूप बन्धुजनोचित कर्तव्य के पालने के लिये उत्सुक नहीं है । ‘तुम तो मेरी दुश्मनी उसी जरिता सौत के लिये चिन्ता करते हुए संतप्त हो रहे हो। पहले जरिता में तुम्हारा जैसा स्नेह था वैसा अवश्य ही मुझपर नहीं है। ‘जो सहायकों से सम्पन्न और शक्तिशाली हैं’ वह मुझ जैसे अपने सुहृद व्यक्ति पर स्नेह नहीं रखे और अपने आत्मीय जन को पीड़ित देखकर उसकी उपेक्षा करे, यह किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। ‘अतः अब तुम उस जरिता के पास ही जाओ, जिसके लिये तुम इतने संतप्त हो रहे हो। मैं भी दुष्ट पुरूष के आश्रय में पड़ी हुई स्त्री की भाँति अकेली ही विचरूँगी’।

मन्दपाल ने कहा - अरी ! तू जैसा समझती है, उस भाव से मैं इस संसार में नहीं विचरता हूँ। मेरा विचरना तो केवल संतान के लिये होता है। मेरी वह संतान संकट में पड़ी हुई है। जो पैदा हुए बच्चों का परित्याग कर भविष्य में होने वालों का भरोसा करता है, वह मूर्ख है; सब लोग उसका अनादर करते हैं; तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा कर। यह प्रज्वलित आग सारे वृक्षों को अपनी लपटों में लपेटती हुई मेरे उद्विग्न हृदय में अमंगलसूचक संताप उत्पन्न कर रही है।

वैशम्पायन जी कहते है - जब अग्निदेव उस स्थान से हट गये, तब पुत्रों की लालसा रखने वाली जरिता पुनः शीघ्रतापूर्वक अपने बच्चों के पास गयी।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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