महाभारत आदि पर्व अध्याय 232 श्लोक 18-32

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द्वात्रिंशदधिकद्विशततम (232) अध्‍याय: आदि पर्व (मयदर्शन पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वात्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद

उसने देखा, सभी बच्चे आग से बच गये हैं और सकुशल है। उन्हें कुछ भी कष्ट नहीं हुआ और वे वन में जोर जोर से चहक रहे हैं । उन्हें बार-बार देखकर वह नेत्रों से आँसू बहाने लगी और बारी-बारी से पुकारकर वह सभी बच्चों से मिली। भारत ! इतने में ही मन्दपाल मुनि भी सहसा वहाँ आ पहुँचे; किंतु उन बच्चों में से किसी ने भी उस समय उनका अभिनन्दन नहीं किया। वे एक-एक बच्चे से बोलते और जरिता को भी बार-बार बुलाते, परंतु वे लोग उन मुनि से भला या बुरा कुछ भी नहीं बोले। मन्दपाल ने पूछा - प्रिये ! तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र कौन है, उससे छोटा कौन है, मझला कौन है और सबसे छोटा कौन है ? मैं इस प्रकार दुःख से आतुर होकर तुमसे पूछ रहा हूँ,, तुम मुझे उत्तर क्यों नहीं देती ? यद्यपि मैंने तुम्हें त्याग दिया था, तो भी यहाँ से जाने पर मुझे शान्ति नहीं मिलती थी।

जरिता बोली - तुम्हें ज्येष्ठ पुत्र से क्या काम है, उसके बाद वाले से भी क्या लेना है, मझले अथवा छोटे पुत्र से भी तुम्हें क्या प्रयोजन है ? पहले तुम मुझे सबसे हीन समझकर त्यागकर जिसके पास चले गये थे, उसी मनोहर मुसकानवाली तरूणी लपित के पास जाओ ।

मन्दपाल ने कहा - परलोक में स्त्रियों के लिये परपुरूष से सम्बन्ध और सौतियाडाह को छोड़कर दूसरा कोई दोष उनके परमार्थ का नाश करने वाला नहीं है यह सौतियाडाह बैर की आग को भड़काने वाला और अत्यन्त उद्वेग में डालने वाला है। समस्त प्राणियों में विख्यात और उत्तम व्रत का पालन करने वाली कल्याणमयी अरून्धती ने उन महात्मा वसिष्ठ पर भी शंका की थी, जिनका हृदय अत्यन्त विशुद्ध है, जो सदा उनके प्रिय और हित में लगे रहते हैं और सप्तर्षि मण्डल के मध्य में विराजमान होते है। ऐसे धैर्यवान् मुनि का भी उन्होनें सौतियाडाह के कारण तिरस्कार किया था। इस अशुभ चिन्तन के कारण उनकी अंगकान्ति धूम और अरूण के समान (मंद) हो गयी। वे कभी लक्ष्य और कभी अलक्ष्य रहकर प्रच्छन्न वेष में मानो कोई निमित्त् देखा करती हैं। मैं पुत्रों से मिलने के लिये आया हूँ, तो भी तुम मेरा तिरस्कार करती हो और इस प्रकार अभिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर जैसे तुम मेरे साथ संदेहयुक्त व्यवहार करती हो, वैसा ही लपिता भी करती है। यह मेरी भार्या है, ऐसा मानकर पुरूष को किसी प्रकार भी स्त्री पर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि नारी पुत्रवती हो जाने पर पतिसेवा आदि अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देती।

वैशम्पायन जी कहते है - तदनन्तर वे सभी पुत्र यथोचित रूप से अपने पिता के पास आ बैठे और वे मुनि भी उन सब पुत्रों को आश्वासन देने के लिये उद्यत हुए।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत मयदर्शनपर्व में शांर्गकोपाख्यान विषयक दो सौ बतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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