महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 22-41

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षट् सप्‍तत्‍यधिकशततम (176) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यानपर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: षट् सप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद

तब उन महातपस्वी राजर्षि ने दु:ख और शोक से संतप्त हो मन-ही-मन आवश्‍यक कर्तव्य का निश्‍चय किया ।और अत्यन्त दुखी हो कांपते हुए ही उन्होंनेउस दु:खिनी कन्या से इस प्रकार कहा- ‘भद्रे! (यदि) तू पिता के घर (नहीं जाना चाहती हो तो) न जा। मैं तेरी मां का पिता हूं । ‘बेटी! मैं तेरा दु:ख दूर करूंगा, तू मेरे पास रह। वत्से! तेरे मन में बड़ा संताप है, तभी तो इस प्रकार सूखी जा रही है । ‘तू मेरे कहने से तपस्या परायण जमदग्निनन्दन परशुरामजी के पास जा। वे तेरे महान् दु:ख और शोक को अवश्‍य दूर करेंगे ।‘यदि भीष्‍म उनकी बात नहीं मानेंगे तो वे युद्ध में उन्हें मार डालेंगे। भार्गवश्रेष्‍ठ परशुराम प्रलयकाल की अग्नि के समान तेजस्वी हैं। तू उन्हीं की शरण में जा । ‘वे महातपस्वी राम तुझे न्यायाचित मार्ग पर प्रतिष्ठित करेंगे।’ यह सुनकर अम्बा बारंबार आंसू बहाती हुई अपने नाना होत्रवाहन को मस्तक नवाकर प्रणाम करके मधुर स्वर में इस प्रकार बोली- ‘नानाजी! मैं आपकी आज्ञा से वहां अवश्‍य जाऊंगी । ‘परंतु मैं आज उन विश्‍वविख्‍यात श्रेष्‍ठ महात्मा का दर्शन कैसे कर सकूंगी और वे भृगुनन्दन परशुरामजी मेरे इस दु:सह दु:ख का नाश किस प्रकार करेंगे? मैं यह सब जानना चाहती हूं, जिससे वहां जा सकूं’। होत्रवाहन बोले- भद्रे! जमदग्निनन्दन परशुराम एक महान् वन में उग्र तपस्या कर रहे हैं। वे महान् शक्तिशाली और सत्यप्रतिज्ञ हैं। तुझे अवश्‍य ही उनका दर्शन प्राप्त होगा । परशुरामजी सदा पर्वतश्रेष्‍ठ महेन्द्र पर रहा करते हैं। वहां वेदवेत्ता महर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराओं का भी निवास है ।। बेटी! तेरा कल्याण हो। तू वहीं जा और उन दृढ़वर्ती तपोवृद्ध महात्मा को अभिवादन करके पहले उनसे मेरी बात कहना ।भद्रे! तत्पश्‍चात् तेरे मन में जो अभीष्‍ट कार्य है वह सब उनसे निवेदन करना। मेरा नाम लेने पर परशुरामजी तेरा सब कार्य करेंगे ।। वत्से! सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ जमदग्निनन्दन वीरवर परशुराम मेरे सखा और प्रेमी सुहृद् हैं । राजा होत्रवाहन जब राजकन्या अम्बा से इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय परशुरामजी के प्रिय सेवक अकृतव्रण वहां प्रकट हुए । उन्हें देखते ही वे सहस्त्रों मुनि तथा सृंजयवंशी वयोवृद्ध राजा होत्रवाहन सभी उठकर खडे़ हो गये ।भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्तर उनका आदर-सत्कार किया गया; फिर वे वनवासी महर्षि एक दूसरे की ओर देखते हुए एक साथ उन्हें घेरकर बैठे । राजेन्द्र! तत्पश्‍चात् वे सब लोग प्रेम और हर्ष के साथ दिव्य, धन्य एवं मनोरम वार्तालाप करने लगे । बातचीत समाप्त होने पर राजर्षि महात्मा होत्रवाहन ने महर्षियों में श्रेष्‍ठ परशुरामजी के विषय में अकृतव्रण से पूछा- ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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