महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 176 श्लोक 42-59
षट् सप्तत्यधिकशततम (176) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यानपर्व)
‘महाबाहु अकृतव्रण! इस समय वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ और प्रतापी जमदग्निनन्दन परशुरामजी का दर्शन कहां हो सकता है?’ । अकृतव्रण ने कहा- राजन्! परशुरामजी तो सदा आप की ही चर्चा किया करते हैं। उनका कहना है कि सृंजयवंशी राजर्षिहोत्रवाहन मेरे प्रिय सखा हैं । मेरा विश्वास है कि कल सबेरे तक परशुरामजी यहां उपस्थित हो जायंगे। वे आपसे ही मिलने के लिये आ रहे हैं। अत: आप यहीं उनका दर्शन कीजियेगा । राजर्षे! मैं यह जानना चाहता हूं कि यह कन्या किस लिये वन में आयी है? यह किसकी पुत्री है और आपकी क्या लगती है? ।होत्रवाहन बोले- प्रभो! यह मेरी दौहित्री (पुत्री की पुत्री) है। अनघ! काशिराज की परमप्रिय ज्येष्ठ पुत्री अपनी दो छोटी बहिनों के साथ स्वयंवर में उपस्थित हुई थी। उनमें से यही अम्बा नाम से विख्यात काशिराज की ज्येष्ठ पुत्री हैं। तपोधन! इसकी दोनों छोटी बहिनें अम्बिका और अम्बालिका कहलाती हैं । ब्रह्मर्षे! काशीपुरी में इन्हीं कन्याओं के लिये भूमण्डल का समस्त क्षत्रियसमुदाय एकत्र हुआ था। उस अवसर पर वहां महान् स्वयंरोत्सव का आयोजन किया गया था । कहते हैं उस अवसर पर महातेजस्वी और महापराक्रमी शान्तुनन्दन भीष्म सब राजाओं को जीतकर इन तीनों कन्याओं को हर लाये । भरतनन्दन भीष्म का हृदय इन कन्याओं के प्रति सर्वथा शुद्ध था। वे समस्त भूपालों को परास्त करके कन्याओं को साथ लिये हस्तिनापुर में आये । वहां आकर शक्तिशाली भीष्म ने सत्यवती को ये कन्याएं सौंप दीं और इनके साथ अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य का विवाह करने की आज्ञा दे दी । द्विजश्रेष्ठ! वहां वैवाहिक आयोजन आरम्भ हुआ देख यह कन्या मन्त्रियों के बीच में गङ्गानन्दन भीष्म से बोली- । ‘धर्मज्ञ! मैंने मन-ही-मन वीरवर शाल्वराज को अपना पति चुन लिया है; अत: मेरा मन अन्यत्र अनुरक्त होने के कारण आपको अपने भाई के साथ मेरा विवाह नहीं करना चाहिये’ । अम्बा का यह वचन सुनकर भीष्म ने मन्त्रियों के साथ सलाह करके माता सत्यवती की सम्मति प्राप्त करके एक निश्चय पर पहुंचकर इस कन्या को छोड़ दिया । भीष्म की आज्ञा पाकर यह कन्या मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न हो सौभ विमान के स्वामी शाल्व के यहां गयी और वहां उस सतय इस प्रकार बोली- ।‘नृपश्रेष्ठ! भीष्म ने मुझे छोड़ दिया हैं; क्योंकि पूर्वकाल में मैंने अपने मन से आपको ही पति चुन लिया था, अत: आप मुझे धर्मपालन का अवसर दे’ । शाल्वराज को इसके चरित्र पर संदेह हुआ; अत: उसने इसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया है। इस कारण तपस्या में अत्यन्त अनुरक्त होकर यह इस तपोवन में आयी है । इसके कुल का परिचय प्राप्त होने से मैंने इसे पहचाना है। यह अपने इस दु:ख की प्राप्ति में भीष्म को ही कारण मानती है । अम्बा बोली- भगवन्! जैसा कि मेरी माता के पिता सृंजयवंशी महाराज होत्रवाहन ने कहा है, ठीक ऐसी ही मेरी परिस्थिति है । तपोधन! महामुने! लज्जा और अपमान के भय से अपने नगर को जाने के लिये मेरे मन में उत्साह नहीं है । भगवन्! द्विजश्रेष्ठ! अब भगवान् परशुराम मुझसे जो कुछ कहेंगे, वही मेरे लिये सर्वोत्तम कर्तव्य होगा; यही मैंने निश्चय किया है ।
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