महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 180 श्लोक 23-38
अशीत्यधिकशततम (180) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यानपर्व)
तब मैंने पुन: जमदग्निनन्दन परशुराम की ओर उन्हें मार डालने की इच्छा से एक कालाग्नि के समान प्रज्वलित तथा तेजस्वी बाण छोड़ा ।उसकी गहरी चोट खाकर परशुरामजी उस बाण के वेग के अधीन हो समरभूमि में मूर्च्छित हो गये और धरती पर गिर पडे़ । परशुराम के पृथ्वी पर गिरते ही मानो आकाश से सूर्य टूटकर गिरे हों, ऐसा समझकर सारा जगत् भयभीत हो हाहाकार करने लगा । कुरूनन्दन! उस समय वे तपोधन और काशिराज की कन्या सब-के-सब अत्यन्त उद्विग्न हो सहसा उनके पास दौडे़ गये और उन्हें हृदय से लगा हाथ फेरकर तथा शीतल जल छिड़ककर विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए सान्त्वना देने लगे । तदनन्तर कुछ स्वस्थ होने पर परशुरामजी उठ गये और धनुष पर बाण चढा़कर विह्वल स्वर में बोले- ‘भीष्म! खडे़ रहो, अब तुम मारे गये’ ।उस महान् युद्ध में उनके धनुष से छूटा हुआ वह बाण तुरंत मेरी बायीं पसलीपर पड़ा, जिससे मैं अत्यन्त उद्विग्न होकर वृक्ष की भांति झूमने लगा । फिर तो परशुरामजी उस महासमर में शीघ्र छोडे़ हुए अस्त्र द्वारा मेरे घोड़ों को मारकर निर्भय हो मेरे ऊपर पांख से उड़ने वाले बाणों से वर्षा करने लगे । महाबाहो! तत्पश्चात् मैंने भी शीघ्रतापूर्वक ऐसे अस्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया, जो युद्धभूमि में विपक्षी की गति को रोक देने वाले थे। मेरे तथा परशुरामजी के बाण आकाश में सब ओर फैलकर मध्यभाग में ही ठहर गये । उस समय बाणों के समूह से आच्छादित होने के कारण सूर्य नहीं तपता था और वायु की गति इस प्रकार कुण्ठित हो गयी थी, मानो मेघों से अवरूद्ध हो गयी हो । उस समय वायु के कम्पन और सूर्य की किरणों से समस्त बाण परस्पर टकराने लगे। उनकी रगड़ से वहां आग प्रकट हो गयी । राजन्! वे सभी बाण अपने ही संघर्ष से उत्पन्न हुई अग्नि से जलकर भस्म हो गये और भूमिपर गिर पडे़ कौरवनरेश! उस समय परशुरामजी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मेरे ऊपर तुरंत ही दस हजार, लाख, दस लाख, अर्बूद, खर्ब और निखर्ब बाणों का प्रहार किया । नरेश्वर! तब मैंने रणभूमि में विषधर सर्प के समान भयंकर सायकों द्वारा उन सब बाणों को वृक्षों की भांति भूमि पर काट गिराया ।भरतभूषण! इस प्रकार वह युद्ध चलता रहा। संध्याकाल बीतने पर मेरे गुरू रणभूमि से हट गये ।
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