महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 68-82

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सप्तचत्वारिंश(47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 68-82 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण जिनके मुख हैं, सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति भुजा है, वैश्य ज्रघा एवं उदर हैं और शूद्र जिनके चरणों के आश्रित हैं, उन चातुर्वण्र्यरूप परमेश्वर को नमस्कार है।। अग्नि जिनका मुख है, स्वर्ग मसतक है, आकाश नाभि है, पृथ्वी पैर है, सूर्य नेत्र हैं और दिशाएँ कान हैं, उन लोकरूप परमात्मा को प्रणाम है। जो काल से परे हैं, यज्ञ से भी परे हैं और परे से भी अत्यन्त परे हैं, जो सम्पूर्ण विश्व के आदि हैं; किन्तु जिनका आदि कोई भी नहीं है, उन विश्वात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जो मेघ में विद्युत और उदर में जठरानल के रूप में स्थित हैं, जो सबको पवित्र करने के कारण पावक तथा स्वरूपतः शुद्ध होने से ‘शुचि’ कहलाते हैं, समसत भक्ष्य पदार्थों को दग्ध करने वाले वे अग्निदेव जिनके ही स्वरूप हैं, उन अग्निमय परमातमा को नमस्कार है।। वैशेषिक दर्शन में बताये हुए रूप, रस आदि गुणों के द्वारा आकृष्ट हो जो लोग विषयों के सेवन में प्रवृत्त हो रहे हैं, उनकी उन विषयों की आसक्ति से जो रक्षा करने वाले हैं, उन रक्षक रूप परमातमा को प्रणाम है। जो अन्न-जलरूपी ईंधन को पाकर शरीर के भीतर रस और प्राणशक्ति को बढ़ाते तथा सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करते हैं, उन प्राणातमा परमेश्वर को नमस्कार है।
प्राणों की रक्षा के लिये जो भक्ष्य, भोज्य, चोष्य लेह्य - चार प्रकार के अन्नों का भोग लगाते हैं और स्वयं ही पेट के भीतर अग्निरूप में स्थित भोजन को पचाते हैं, उन पाकरूप परमेश्वर को प्रणाम है। जिनका नरसिंहरूप दानवराज हिरण्यकशिपु का अन्त करने वाला, उस समय जिनके नेत्र और कंधे के बाल पीले दिखायी पड़ते थे, बड़ी-बड़ी दाढ़े और नख ही जिनके आयुध थे, उन दर्परूपधारी भगवान् नरसिंह को प्रणाम है। जिन्हें न देवता, न गन्धर्व, न दैत्य और न दानव ही ठीक-ठीक जान पाते हैं, उन सूक्ष्मस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। जो सर्वव्यापक भगवान् श्रीमान् अनन्त नामक शेषनाग रूप में रसातल मे रहकर सम्पूर्ण जगत् को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उन वीर्यरूप परमेश्वर को प्रणाम है। जो इस सुष्टि-परम्परा की रक्षा के लिये सम्पूर्ण प्राणियों को स्नेहपाश में बाँधकर मोह में डाले रखते हैं, उन मोहरूप भगवान् को नमस्कार है। अन्नमयादि पाँच कोषों में स्थित अन्तरतम आत्मा का ज्ञान होने के पश्चात् विशुद्ध बोध के द्वारा विद्वान् पुरुष जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन ज्ञान स्वरूप परब्रह्म को प्रणाम है। जिनका स्वरूप किसी प्रमाण का विषय नहीं है, जिनके बुद्धिरूपी नेत्र सब ओर व्याप्त हो रहे हैं तथा जिनके भीतर अनन्त विषयों का समावेश है, उन दिव्यात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जो जटा और दण्ड धारण करते हैं, लम्बोदर शरीर वाले हैं तथा जिनका कमण्डलु ही तूणीर का काम देता है, उन ब्रह्माजी के रूप में भगवान् को प्रणाम है।। जो त्रिशूल धारण करने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो महात्मा हैं तथा जिन्होंने अपने शरीर पर विभूति रमा रखी है, उन रुद्ररूप परमेश्वर को नमस्कार है। जिनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट और शरीर पर सर्प का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा है, जो अपने हाथ में पिनाक और त्रिशूल धारण करते हैं, उन उग्ररूपधारी भगवान् शंकर को प्रणाम है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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