महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 46-61

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चतुनर्वतितम (94) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: चतुनर्वतितम अध्याय: श्लोक 46-61 का हिन्दी अनुवाद

जिस महामनस्वी कर्ण का सारा धन ब्राह्माणों के अधीन था, ब्राह्माणों के लिये जिसका कुछ भी, अपना जीवन भी अदेय नहीं था, जो स्त्रियों को सदा प्रिय लगता था और प्रतिदिन दान किया करता था, वह महारथी कर्ण पार्थ के बाणों से दग्ध हो परम गति को प्राप्त हो गया। राजन् ! जिसका सहारा लेकर आपके पुत्र ने पाण्डवों के साथ वैर किया था, वह कर्ण आपके पुत्रों की विजय की आशा, सुख और कवच (रक्षा) लेकर स्वर्गलोक को चला गया। कर्ण के मारे जाने पर नदियों का प्रवाह रूक गया, सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये और अग्नि तथा सूर्य के समान कांतिमान मंगल एवं सोमपुत्र बुध बिरछे होकर उदित हुए। आकाश फटने-सा लगा, पृथ्वी चीत्कार कर उठी, भयानक और रूखी हवा चलने लगी, सम्पूर्ण दिशाएँ धूम सहित अग्नि से प्रज्वलित-सी होने लगीं और महासागर भयंकर स्वय में गर्जने तथा विक्षुब्ध होने लगे। वनों सहित पर्वतसमूह काँपने लगे, सम्पूर्ण भूतसमुदाय व्यथित हो उठे।
प्रजानाथ ! बृहस्पति नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्र को सब ओर से घेरकर चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। कर्ण के मारे जाने पर दिशाओं के कोने-कोने में आग सी लग गयी, आकाश में अँधेरा छा गया, धरती डोलने लगी, अग्नि के समान प्रकाशमान उल्का गिरने लगी और निशाचर प्रसन्न हो गये। जिस समय अर्जुन ने क्षुर के द्वारा कर्ण के चन्द्रमा के समान कांतिमान मुख वाले मस्तक को काट गिराया, उस समय आकाश में देवताओं के मुख से निकला हुआ हाहाकार का शब्द गूँज उठा। राजन् ! देवता, गन्धर्व और मनुष्यों द्वारा पूजित अपने शत्रु कर्ण को युद्ध में मारकर अर्जुन ने अपने उत्तम तेज से उसी प्रकार प्रकाशित होने लगे, जैसे पूर्वकाल में वृत्रासुर वध इन्द्र सुशोभित हुए थे। तदनन्तर नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन समरांगण में रथ पर आरूढ़ हो अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी एक ही वाहन पर बैठे हुए भगवान विष्णु और इन्द्र के सदृश भय रहित हो विशेष शोभा पाने लगे। वे जिस रथ से यात्रा करते थे, उससे मेंघ समूहों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि होती थी, वह रथ शरत्काल के मध्याकालीन सूर्य के समान तेज से उदीप्त हो रहा था, उसपर पताका फहराती थी और उसकी ध्वजा पर भयानक शब्द करने वाला वानर बैठा था। उसकी कांति हिम, चन्द्रमा, शंख और स्फटिकमणि के समान सुन्दर थी। वह रथ वेग में अपना सानी नहीं रखता था और देवराज इन्द्र के रथ के समान तीव्रगामी था ।
उस पर बैठे हुए दोनों नरश्रेष्ठ देवराज इन्द्र के समान शक्तिशाली और पुरूषार्थी थे तथा सुवर्ण, मुक्ता, मणि, हीरे और मूँगे के बने हुए आभूषण उसके श्री अंगों की शोभा बढ़ाते थे। तत्पश्चात् धनुष की प्रत्यंचा, हथेली और बाण के शब्दों से शत्रुओं को बलपूर्वक श्रीहीन करके, उत्तम बाणों द्वारा कौरव सैनिकों को ढक्कर अमित्त प्रभावशाली नरश्रेष्ठ गरूडध्वज श्रीकृष्ण और कपिध्वज अर्जुन हर्ष में भरकर विपक्षियों का हृदय विदीर्ण करते हुए हाथों में दो श्रेष्ठ शंख ले उन्हें अपने सुन्दर मुखों से एक ही साथ चूमने और बजाने लगे। उनके वे दोनों शंख सोने की जाली से आवृत, बर्फ के समान सफेद और महान शब्द करने वाले थे। पांचजन्य तथा देवदत्त दोनों शंखों की गम्भीर ध्वनि ने पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्वनित कर दिया।। नृपश्रेष्ठ ! श्रीकृष्ण और अर्जुन की उस शंखध्वनि से समस्त कौरव संत्रस्त हो उठे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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