महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 99-109

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:५७, १८ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('==सप्तचत्वारिंश(47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तचत्वारिंश(47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 99-109 का हिन्दी अनुवाद
जो विद्या और तप के जन्मस्थान हैं, जिनको दूसरा कोई जन्म देने वाला नहीं है, उन भगवान् विष्णु का मैंने इस प्रकार वाणी रूप यज्ञ से पूजन किया है। इससे वे भगवान् जनार्दन मुझपर प्रसन्न हों। नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तप हैं। नारायण ही सबसे बड़े देवता हैं और भगवान् नारायण ही सदा सब कुछ हैं।

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय भीष्मजी का मन भगवान् श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, उन्होंने ऊपर बतायी हुई स्तुति करने के पश्चात् ‘नमः श्रीकृष्णाय’ कहकर उन्हें प्रणाम किया।भगवान भी अपने योगबल से भीष्म जी की भक्ति को जानकर उनके निकट गये और उन्हें तीनों लोकों की बातों का बोध कराने वाला दिव्य ज्ञान देकर लौट आये। योग पुरुष प्राण त्याग के समय जिन्हें बड़े यत्न से अपने हृदय में स्थापित करते हैं, उनहीं श्रीहरि को अपने सामने देखते हुए भीष्म जी ने जीवन का फल प्राप्त करके अपने प्राणों का परित्याग किया था।। जब भीष्मजी का बोलना बंद हो गया, तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मवादी महर्षियों ने आँखों में आँसू भरकर गद्गद कण्ठ से परम बुद्धिमान् भीष्मजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की।वे ब्राह्मण शिरोमणि सभी महर्षि पुरुषोत्तम भगवान् केशव की स्तुति करते हुए धीरे-धीरे भीष्मजी की बारंबार सराहना करने लगे।
इधर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भीष्म जी के भक्तियोग को जानकर सहसा उठे और बड़े हर्ष के साथ रथ पर जो बैठे। एक रथ से सात्यकि और श्रीकृष्ण चले तथा दूसरे रथ से महामना युधिष्ठिर और अर्जुन भीमसेन और नकुल-सहदेव तीसरे रथ पर सवार हुए। चैथे रक्ष से कृपाचार्य, युयुत्सु और शत्रुओं को तपाने वाला सारथि संजय - से तीनों चल दिये। वे पुरुषप्रवर पाण्डव और श्रीकृष्ण नगराकार रथों द्वारा उनके पहियों के गम्भीर घोष से पृथ्वी को कँपाते हुए बड़े वेग से गये। उस समय बहुत-से ब्राह्मण मार्ग में पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की स्तुति करते और भगवान् श्री कृष्ण प्रसन्न मन से उसे सुनते थे। दूसरे बहुत से लोग हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम करते और केयिाहनता केशव मन-ही-मन आनन्दित हो उन लोगों का अभिनन्दन करते थे। जो मनुष्य शारंग धनुष धारण करने वाले यदुकुलनन्दन श्रीकृष्ण की इस स्तुति को याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीर का अन्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रवेश कर जाते हैं। चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पापों का नाश कर डालते हैं।। गंगानन्दन भीष्म ने पूर्वकाल में जिसका गान किया था, अद्भुतकर्मा विष्णु का वही यह स्तवराज पूरा हुआ। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है।। यह स्तो़राज पापियों के समस्त पापों का नाश करने वाला है, संसार-बन्धन से छूटने की इच्छावाला जो मनुष्य इसका पवित्रभाव से पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकों को भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृमय धाम को चला जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।