महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-17

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सप्तविंशत्यधिकशतकम (127) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश, द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ का चूर्ण कर देता तथा उनके द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध, अवशिष्ट पुत्रों सहित सेना का पलायन

भीमसेन ने कहा - महाराज ! जो रथ पहले ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र अैर वरुण की सवारी में आ चुका है, उसी पर बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन युद्ध के लिये गये हैं। अतः उनके लिये तनिक भी भय नहीं है। तथापि आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके यह मैं जा रहा हूँ। आप शोक या चिन्ता न करें। मैं उन पुरुषसिंहों से मिलकर आपको सूचना दूँगा। संजय कहते हैं - राजन् ! ऐसा कहकर बलवान् भीमसेन राजा युधिष्ठिर को धृष्टद्युम्न तथा अन्य सुहृदों की देख रेख में सौंपकर वहाँ से चल दिये। जाते समय महाबली भीमसेन ने धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा - ‘महाबाहो ! तुम्हें तो यह मालूम ही है कि महारथी द्रोण सारे उपाय करके किस प्रकार धर्मराज को पकड़ने पर तुले हुए हैं। ‘अतः द्रुपदनन्दन ! मेरे लिये वहाँ जाने की वैसी आवश्यकता नहीं है? जैसी यहाँ रहकर राजा की रक्षा करने की है। यही हम लोगों के लिये सबसे महान् कार्य है। ‘परंतु जब कुन्तीनन्दन महाराज ने इस प्रकार मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दे दी है, तब मैं उन्हें कोरा जवाब नहीं दे सकता - उनकी आज्ञा टाल नहीं सकता। अतः जहाँ मरणासन्न जयद्रथ खड़ा है, वहीं मैं जाऊँगा। मुझे बिना किसी संशय के धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन रहना चाहिये। ‘अतः अब मैं भाई अर्जुन तथा बुद्धिमान् सात्यकि के पथ का अनुसरण करूँगा। अब तुम सावधान हो प्रयत्न पूर्वक रणभूमि में कुन्ती कुमार राजा युधिष्ठिर की रक्षा करो। इस युद्ध स्थल में यही हमारे लिये सब कार्यों से बढ़कर महान् कार्य है’।
महाराज ! यह सुनकर धृष्टद्युम्न ने भीमसेन से कहा - ‘कुन्तीनन्दन ! तुम कुछ भी सोत्र - विचार न करके जाओ। मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार सब कार्य करूँगा। ‘द्रोणाचार्य संग्राम में धृष्टद्युम्न का वध किये बिना किसी प्रकार धर्मराज को कैद नहीं कर सकेंगे’। तब भीमसेन ने पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर को धृष्टद्युम्न के हाथों में सौंपकर अपने बड़े भाई को प्रणाम करके जिस मार्ग से अर्जुन गये थ्से, उसी पर चल दिये। भारत ! उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने कुन्ती कंमार भीमसेन को गले लगाया, उनका सिर सूँघा और उन्हें शुभ आशीर्वाद सुनाये। तदनन्तर पूजित एवं संतुष्टचित्त हुए ब्राह्मणों की परिक्रमा करके आठ प्रकार की मांगलिक वस्तुओं का स्पश्र करने के पश्चात् भीमसेन ने केरातक मधु का पान किया। फिर तो वीर भ्ज्ञीमसेन का बल और उत्साह दुगुना हो गया, उनके नेत्र मद से लाल हो गये थे। उस समय ब्राह्मणों ने स्वस्तिवचन किया, जिससे विजय लाभ सूचित होता था। उन्हें अपनी बुद्धि विजयानन्द का अनुभव करती सी दिखायी दी। अनुकूल हवा चलकर उन्हें शीघ्र ही अवश्यम्भावी विजय की सूचना देने लगी। रथियों में श्रेष्ठ महाबाहु भीमसेन कवच, सुन्दर कुण्डल, बाजूबन्द और जलत्राण ( दस्ताने ) धारण करके रथ पर आरूढ़ हो गये। उनका काले लोहे का बना हुआ सुवर्णजटित बहुमूल्य कवच उनके सारे अंगों में सटकर बिजली सहित मेघ के समान सुशोभित हो रहा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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