महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 127 श्लोक 18-38

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:०५, १९ सितम्बर २०१५ का अवतरण ('==सप्तविंशत्यधिकशतकम (127) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सप्तविंशत्यधिकशतकम (127) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: सप्तविंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद

लाल, पीले, काले और सफेद वस्त्रों से अपने शरीर को सुसज्जित करके कण्ठत्राण पहनकर वे इन्द्रधनुष युक्त मेघ के समान शोभा पा रहे थे। प्रजानाथ ! जब भीमसेन युद्ध की इच्छा से आपकी सेना की ओर प्रस्थित हुए, उस समय पुनः पान्चजन्य शंख की भयंकर ध्वनि प्रकट हुई। त्रिलोकी को डरा देने वाले उस घोर एवं महान् सिंहनाद को सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने ( जाते हुए ) महाबाहु भीमसेन से पुनः इस प्रकार कहा -‘भीम ! देखो, यह वृष्णिवंश के प्रमुख वीर भगवान् श्रीकृष्ण ने बड़े जोर से शंख बजाया है। यह शंखराज इस समय पृथ्वी और आकाश दोनों को अपनी ध्वनि से परिपूर्ण किये देता है। निश्चय ही सव्यसाची अर्जुन के भारी संकट में पड़ जाने पर चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण समस्त कौरवों के साथ युद्ध कर रहे हैं। ‘आज अवश्य ही माता कुन्ती किसी दुःखद अपशकुन की चर्चा करती होंगी। बन्धुओं सहित द्रौपदी और सुभद्रा भी कोई असगुन देख रही होंगी। ‘अतः भीम ! तुत तुरंत हा जहाँ अर्जुन हैं, वहाँ जाओ। आज अर्जुन को देखने के लिये मेरी सारी दिशाएँ मोहाच्छन्न सी हो रही हैं। सात्यकि को न देख पाने के कारण भी मेरे लिये सारी दिशाओं में अँधेरा छा गया है’।
राजन् ! इस प्रकार ‘जाओ, जाओ’ कहकर बड़े भाई के आज्ञा देने पर उदर में वृक समान अग्नि को धारण करने वाले प्रतापी पाण्डुपुत्र भीमसेन गोह के चमड़े से बने हुए दस्ताने पहनकर हाथ में धनुष ले वहाँ से जाने के लिये तैयार हुए। वे भाई का प्रिय करने वाले भाई थे और बड़े भाई के भेजने से ही वहाँ से जाने को उद्यत हुण् थे। भीमसेन ने बारंबार डंका पीटा और अनेक बार शंख बजाकर बारंबार धनुष की प्रत्यन्ची खींचते हुए सिंह के समान दहाड़ने के समान भयंकर गर्जना की। उस तुमुल शब्द के द्वारा बड़े - बड़े वीरों के दिल दहलाकर अपना भयंकर रूप दिखाते हुए उन्होंने सहसा शत्रुओं पर धावा बोल दिया । उस समय विशोक नामक सारथि के द्वारा संचालित होने वाले, मन और वायु के समान वेगशाली तीव्रगामी और सुशिक्षित सुन्दर घोड़े हर्ष सूचक शब्द करते हुए उनका भार वहन करते थे। कुन्तीकुमार भीम अपने हाथ से धनुष की डोरी खींचकर चढ़ाते, उसे भलीभाँति कान तक खींचते, बाणों की वर्षा करते तथा शत्रुओं को घायल करके उनके अंग भंग करते हुए सेना के अग्र भाग को मथे डालते थे। इस प्रकार यात्रा करते हुए महाबाहु भीमसेन के पीछे पान्चाल और सोमक वीर भी चले, मानो देवगण देवराज इन्द्र का अनुसरण कर रहे हों।
महाराज ! उस समय आप के पुत्रों ने भीमसेन का सामना करके उन्हें रोका ! दुःशल, चित्रसेन, कुण्डभेदी, विविंशति, दुर्मुख, दुःसह, विकर्ण, शल, विछन, अनुविन्द, सुमुख, दीर्घबाहु, सुदर्शन, वृन्दारक, सुहस्त, सुषेण, दीर्घलोचन, अभय, रौद्रकर्मा, सुवर्मा और दुर्विमोचन - इन शोभाशाली रथिश्रेष्ठ वीरों ने अपने सैनिकों और सेवकों के साथ सावधान एवं प्रयत्नशील होकर समरांगण में भीमसेन पर धावा किया। उन शूरवीरों के द्वारा समर भूमि में महारथी भीम सब ओर से घिर गये थे। उन सबको सामने देखकर मराक्रमशाली कुन्ती कुमार भीमसेन उसी प्रकार वेग से आगे बढ़े, जैसे सिंह क्षुद्र मृगों की ओर बढ़ता है। परंतु जैसे बादल उगे हुए सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार वे वीरगण अपने बाणों द्वारा भीमसेन को आच्छादित करते हुए वहाँ बड़े बड़े दिव्यास्त्रों का प्रदर्यान करने लगे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।