महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 131 श्लोक 38-58

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एकत्रिंशदधिकशतकम (131) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: एकत्रिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद

महाबाहु भीमसेन कर्ण के धनुष से छूटे हुए उन बाणों की कोई परवा न करके बिना किसी घबराहट के सूत पुत्र के इतने समीप पहुँच गये, मानो उससे सटे जा रहे हों। महाराज ! कर्ण ने धनुष से छूटे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर बाणों को अपने शरीर पर धारण करते हुए भीमसेन ने रण क्षेत्र में व्यथित नहीं हुए। तत्पश्चात् अच्छी तरह तेज किये हुए बत्तीस तीखे भल्लों से प्रतापी भीमसेन ने समरांगण में कर्ण को भारी चोट पहुँचायी। उधर र्का जयद्रथ के वध की इच्छा वाले महाबाहु भीमसेन पर अनायास ही बाणों की बड़ी भारी वर्षा करने लगा। राणा नन्दन कर्ण तो भीमसेन पर कोमल प्रहार करता हुआ रण भूमि में उनके साथ युद्ध करता था; परंतु भीमसेन पहले के वैर को बारंबार स्मरण करते हुए क्रोध पूर्वक उसके साथ जूझ रहे थे। शत्रुओं का नाश करने वाले अमर्षशील भीमसेन कर्ण द्वारा दिखायी जाने वाली कोमलता या ढिलाई को अपने लिये अपमान समझकर उसे सह न सके। अतः उन्होंने भी तुरंत ही उस पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। युद्ध स्थल में भीमसेन के द्वारा चलाये हुए वे बाण कूजते हुए पक्षियों के समान वीर कर्ण पर सब ओर से पड़ने लगे। भीमसेन के धनुष से छूटे हुए चमचमाती हुई धर वाले सुवर्णमय पंखों से सुशोभित उन बाणों ने राधा नन्दन कर्ण को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे पतिंगे आग को आच्छादित कर लेते हैं ।
भरतवंशी नरेश ! इस प्रकार सब ओर से बाणों द्वारा आच्छादित होते हुए रथियों में रेष्ठ कर्ण ने भी भीम पर भयंकर बाणा वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु समर भूमि में शोभा पाने वाले कर्ण के उन वज्रोपम बाणों को भीमसेन ने अपने पास आने से पहले ही बहुत से भल्लों द्वारा काट गिराया। भरत नन्दन ! शत्रुओं का दमन करने वाले सूर्य पुत्र कर्ण ने युद्ध में पुनः बाण वर्षा करके भीमसेन को ढक दिया। भारत ! उस समय युद्ध स्थल में बाणों से चिने हुए शरीर वाले भीमसेन को सब लोगों ने कंटकों से युक्त साही के समान देखा। वीर भीमसेन ने कर्ण के धनुष से छूटे और शिला पर तेज किये हुए सुवर्ण पंख युक्त बाणों को समरांगण में अपने शरीर पर उसी प्रकार धारा किया था, जैसे अंशुमाली सूर्य अपनी किरणों को धारण करते हैं। भीमसेन का सारा शरीर खून से लथपथ हो रहा था। वे वसन्त ऋतु में खिले हुए अधिकाधिक पुष्पों से सम्पनन अशोक वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे।
महाबाहु भीमसेन रण भूमि में विशाल बाहु कर्ण के उस चरित्र को न सह सके। उस समय क्रोण से उनके नेत्र घूमने लगे। उन्होंने कर्ण पर पचीस नाराच चलाये; उनके लगने से कर्ण छिपे हुए पैरों वाले विषैले सर्पों से युक्त श्वेत पर्वत के समान जान पड़ता था। फिर देवोपम पराक्रमी भीम ने अपने शरीर की परवा न करने वाले सूत पुत्र को उसके मर्म स्थल में छः और आठ बाण मारकर तुरंत ही कर्ण के धनुष को काट दिया। फिर शीघ्रता पूर्वक बाणो का प्रहार करके उसके चारों घोड़ों औ सारथि को भी मार डाला। साथ ही सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी नाराचों से कर्ण की छाती में भारी आघात किया। जैसे सूर्य की किरणें बादलों को भेदकर सब ओर फैल जाती हैं, उसी प्रकार भीमसेन के बाण कर्ण के शरीर को छेदकर शीघ्र ही धरती में समा गये। यद्यपि कर्ण को अपने पुरुषत्व का बड़ा अभिमान था, तो भी भीमसेन के बाणों से घायल हो धनुष कट जाने पर रथाहीन होने के कारएा वह बड़ी भारी घबराहट में पड़ गया और दूसरे रथ पर बैइने के लिये वहाँ से भाग निकला।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत जयद्रथ वध पर्व में कर्ण की पराजय विषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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