महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 131-147

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द्वयधिकद्विशततम (202) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 131-147 का हिन्दी अनुवाद

ये मनुष्‍यों का कल्‍याण चाहते हुए उनके समस्‍त कर्मो में सम्‍पूर्ण अभि‍लषित पदार्थो की समृदि् (सिदि) करते हैं, इसलिये ‘शिव’ कहे गये हैं। उनके सहस्‍त्र अथवा दस हजार नेत्र हैं अथवा वे सब ओर से नेत्रमय ही हैं। भगवान शिव महान विश्‍व का पालन करते है; इसलिये ‘महादेव’ कहे गये हैं। वे पूर्वकाल से ही महान् रूप में स्थित हैं, प्राणोंकी उत्‍पति और स्थिति के कारण हैं तथा उनका लिंगमय शरीर सदा स्थित रहता है; इसलिये उन्‍हें ‘स्‍थाणु’ कहते हैं। लोक में जो सूर्य और चन्‍द्रमा की किरणें प्रकाशित होती हैं, वे भगवान् त्रिलोचन के केश कही गयी हैं। वे व्‍योम (आकाश) में प्रकाशित होती है; इसलिये उनका नाम ‘व्‍योमकेश’ है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य सम्‍पूर्ण जगत् भगवान् शंकर से ही विस्‍तार को प्राप्‍त हुआ है; इसलिये वे ‘भूतभव्‍यभवोद्भुव’ कहे गये हैं। कपि कहते हैं श्रेष्‍ठ को और वृष नाम है धर्म का । वृष और कपि दोनों होने के कारण देवाधिदेव भगवान शंकर ‘वृषाकपि’ कहलाते हैं। वे ब्रहमा, इन्‍द्र, वरूण, यम तथा कुबेर को भी काबू में करके उनसे उनका ऐश्‍वर्य हर लेते हैं; इसलिये ‘हर’ कहे गये हैं। उन भगवान् महेश्‍वर ने दोनों नेत्रों को बंद करके अपने ललाट में बलपूर्वक तीसरे नेत्र की सृष्टि की, इसलिये उन्‍हें त्रिनेत्र कहते हैं। वे प्राणियोंके शरीर में विषम संख्‍यावाले पॉच प्राणोंके साथ निवास करते हुए सदा समभाव से स्थित रहते है। विषम परिस्थितियों में पडे हुए समस्‍त देहधारियों के भीतर वे ही प्राणवायु और अपानवायु के रूप में विराजमान हैं। जो कोई भी मनुष्‍य हो, उसे महात्‍मा शिव के अर्चाविग्रह अथवा लिंग (प्रतीक) की पूजा करनी चाहिये। लिंग अथवा प्रतिमा की पूजा करने वाला पुरूष बडी भारी सम्‍पति प्राप्‍त कर लेता है। दोनों जॉघों से नीचे भगवान् शिव का आधा शरीर आग्‍नेय अथवा घोर है तथा उससे उपर का आधा शरीर सोम एवं शिव है। किसी किसी के मत में उनके सम्‍पूर्ण शरीर का आधा भाग ‘अग्नि’ और आधा भाग ‘सोम’ कहलाता है। उनका जो शिव शरीर है, वह तेजोमय और परम कान्तिमान् है। वह देवताओं के उपयोग में आता है तथा मनुष्‍य लोक में उनका प्रकाशमान घोर शरीर ‘अग्नि’कहलाता है। उनकी जो शिव मूर्ति है, वह जगत् की रक्षा के लिये ब्रहमचर्य का पालन करती है और उनकी जो घोरतर मूर्ति है, उसके द्वारा भगवान् शंकर सम्पूर्ण जगत् का संहार करते है। ये प्रतापी देवता प्रलय काल में अत्‍यन्‍त तीक्ष्‍ण एवं उग्र रूप धारण करके सबको दग्‍ध कर डालते हैं और प्राणियों के रक्‍त, मांस एवं मज्‍जा को भी भक्षण करते हैं; अतः रौद्र भाव के कारण ‘रूद्र’ कहलाते है। अर्जुन ! संग्राम भूमि में जो तुम्‍हारे आगे शत्रुओं का संहार करते हुए दिखायी दिये हैं, वे ये ही पिनाकधारी भगवान् महादेव हैं। निष्‍पाप अर्जुन ! जब तुमने सिंधुराज के वध की प्रतिज्ञा की थी, उस समय स्‍वप्रमें भगवान श्रीकृष्‍ण ने तुम्‍हें गिरिराज के शिखर पर जिनका दर्शन कराया था, ये वे ही भगवान् शंकर संग्राम में तुम्‍हारे आगे आगे चल रहे हैं । उन्‍होंने ही तुम्‍हें वे दिव्‍यास्‍त्र प्रदान किये थे, जिनके द्वारा तुमने दानवों का संहार किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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