महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 224 श्लोक 1-15

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विंशत्‍यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

बलि और इन्‍द्र का संवाद, बलि के द्वारा काल की प्रबलता का प्रतिपादन करते हुए इन्‍द्र को फटकारना

भीष्‍मजी कहते हैं- भारत ! ऐसा कहकर सर्प के समान फुफकारते हुए बलि से इन्‍द्र ने पुन: अपना उत्‍कर्ष सूचित करने के लिये हॅसते हुए कहा। इन्‍द्र बोले– दैत्‍यराज बलि ! पहले जो तुम सहस्‍त्रों वाहनों और भाई-बन्‍धुओं से घिरकर सम्‍पूर्ण लोकों को संताप देते और हम देवताओं को कुछ न समझते हुए यात्रा करते थे और अब बन्‍धु-बान्‍धवों तथा मित्रों से परित्‍यक्‍त होकर जो अपनी यह अत्‍यन्‍त दीनदशा देख रहे हो, इससे तुम्‍हारे मन में शोक होता है या नहीं ? पूर्वकाल में तुमने सम्‍पूर्ण लोकों को अपने अधीन कर लिया था और अनुपम प्रसन्‍नता प्राप्‍त की थी; किंतु इस समय ब्राह्रा जगत में तुम्‍हारायह घोर पतन हुआ है, यह सब सोचकर तुम्‍हारे मन में शोक होता है या नहीं ? ।।४।। बलि ने कहा – इन्‍द्र ! कालचक्र स्‍वभाव से ही परिवर्तनशील है, उसके द्वारा यहॉ की प्रत्‍येक वस्‍तु को मैं अनित्‍य समझता हॅू, इसीलिये कभी शोक नहीं करता हॅू; क्‍योंकि यह सारा जगत् विनाशशील है। देवेश्‍वर ! प्राणियों के सारे शरीर अन्‍तवान् हैं; इसलिये मैं कभी शोक नहीं करता हॅू । यह गर्दभ का शरीर भी मुझे किसी अपराध से नहीं प्राप्‍त हुआ है (मैंने इसे स्‍वेच्‍छा से ग्रहण किया है )। जीवन और शरीर दोनों जन्‍म के साथ ही उत्‍पन्‍न होते हैं, साथ ही बढ़ते हैं और साथ ही नष्‍ट हो जाते हैं। मैं इस गर्दभ शरीर को पाकर भी विवश नहीं हुआ हॅू । जब मैं इस प्रकार देह की अनित्‍यता और आत्‍मा की असंगता को जानता हॅू, तब यह जानते हुए मुझे क्‍या व्‍यथा हो सकती है ?
वज्रधारी इन्‍द्र ! जैसे जल के प्रवाहों का अन्तिम आश्रय समुद्र है, उसी प्रकार शरीरधारियों की अन्तिम गति मृत्‍यु है । जो पुरूष इस बात को अच्‍छी तरह जानते हैं, वे कभी मोह में नही पड़ते हैं। जो लोग रजोगुण (काम-क्रोध) और मोह के वशीभूत हो इस बात को भलीभॉति नहीं जानते हैं तथा जिनकी बुद्धि नष्‍ट हो जाती है, वे संकट में पड़ने पर बहुत दु:खी होते हैं। जिसे सद्बुद्धि प्राप्‍त होती हैं, वह पुरूष उस बुद्धि के द्वारा सारे पापों को नष्‍ट कर देता है । पापहीन होनेपर उसे सत्‍वगुण की प्राप्ति होती है और सत्‍वगुण में स्थित होकर वह सात्विक प्रसन्‍नता प्राप्‍त कर लेता है। जो मन्‍दबुद्धि मानव सत्‍वगुण से भ्रष्‍ट हो जाते हैं, वे बारंबार इस संसार में जन्‍म लेते हैं तथा रजोगुणजनित काम, क्रोध आदि दोषों से प्रेरित होकर सदा संतप्‍त होते रहते हैं। मैं न तो अर्थसिद्धि, जीवन और सुखमय फल की कामना करता हॅू और न अनर्थ, मृत्‍यु एवं दु:खमय फल से द्वेष ही रखता हॅू। जो मनुष्‍य किसी की हत्‍या करता है, वह वास्‍तव में स्‍वयं मरा हुआ होते हुए मरे हुए को ही मारता है । जो मारता है और जो मारा जाता है, वे दोनों ही आत्‍मा को नहीं जानते हैं (क्‍यों‍कि आत्‍मा हननक्रिया का न तो कर्म है, न कर्ता)। मघवन ! जो कोई किसी को मारकर या जीतकर अपने पौरूष पर गर्व करता है, वह वास्‍तव में उस पुरूषार्थ का कर्ता ही नहीं हैं; क्‍योंकि जो जगत् का कर्ता, जो परमात्‍मा है, वही उस कर्म का भी कर्ता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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