महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 226 श्लोक 1-14
षड्चर्विंशत्यधिकद्विशततम (226) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इन्द्र और नमुचि का संवाद
भीष्म जी कहते हैं – युधिष्ठिर ! इसी विषयमें विज्ञ पुरूष इन्द्र और नमुचिके संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, दैत्यराज नमुचि राजलक्ष्मी से च्युत हो गये, तो भी वे प्रशान्त महासागर के समान क्षोभरहित बने रहे; क्योंकि वे कालक्रम से होनेवाले प्राणियों के अभ्युदय और पराभव के तत्व को जाननेवालेथे । उस समय देवराज इन्द्र उनके पास जाकरइस प्रकार बोले। ‘नमुचे ! तुम रस्सियों से बॉधे गये, राज्य से भ्रष्ट हुए, शत्रुओं के वश में पड़े और धन सम्पति से वंचित हो गये । तुम्हें अपनी इस दुरवस्था पर शोक होता है या नही ?’ नमुचि ने कहा – देवराज ! यदि शोक को रोका न जाय तो उसके द्वारा शरीर संतप्त हो उठता है और शत्रु प्रसन्न होते है । शोक के द्वारा विपत्ति को दूर करनेमें भी कोई सहायता नहीं मिलती। इन्द्र ! इसीलिये मैं शोक नहीं करता; क्योंकि यह सम्पूर्ण वैभव नाशवान् है । संताप करने से रूप का नाश होता है । संताप से कान्ति फीकी पड़ जाती है और सुरेश्वर ! संताप से आयु तथा धर्म का भी नाश होता है।
अत: समझदार पुरूष को वैमनस्य के कारण प्राप्त हुए दु:ख का निवारण करके मन ही मन हृदयस्थित कल्याणमय परमात्मा का चिन्तन करना चाहिये।
पुरूष जब-जब कल्याणस्वरूप परमात्मा के चिन्तन में मन लगाता है, तब-तब उसके सारेमनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं है। जगत् का शासन करनेवाला एक ही है, दूसरा नहीं । वही शासक गर्भ में सोये हुए जीव का भी शासन करता है, जैसे जल निम्न स्थान की ओर ही प्रवाहित होता है, उसी प्रकार प्राणी उस शासक से प्रेरित होकर उसकी अभीष्ट दिशा को ही गमन करता है । उस ईश्वर की जैसी प्रेरणा होती है, उसी के अनुसार मैं भी कार्यभार वहन करता हॅू। मैं प्राणियोंके अभ्युदय और पराभव को जानता हॅू । श्रेष्ठ तत्वसे भी परिचित हॅू और ज्ञान से कल्याण की प्राप्ति होती है, इस बात को भी समझता हॅू, तथापि उसका सम्पादन नहीं करता हॅू । इसके विपरीत धर्मसम्मत अथवा अधर्मयुक्त आशाऍ मन में लेकर जैसी अन्तर्यामी की प्रेरणा होती है, उसके अनुसार कार्यभार वहन करता हॅू। पुरूष को जो वस्तु जिस प्रकार मिलनेवाली होती है, वह उस प्रकार मिल ही जाती है । जिस वस्तु की जैसी होनहार होती है, वह वैसी होती ही है।
विधाता जिस-जिस गर्भ में रहने के लिये जीव को बार-बार प्रेरित करते हैं, वह जीव उसी-उसी गर्भ में वास करता है; किंतु वह स्वयं जहॉ रहने की इच्छा करता है, वहॉ नहीं रह पाता है। मुझे जो यह अवस्था प्राप्त हुई है, ऐसा ही होनहार थी ।जिसके हृदय में सदा इस तरह की भावना होती है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता है। कालक्रम से प्राप्त होनेवाले सुख-दु:खों द्वारा जो लोग आहत होते हैं, उनके उस दु:ख के लिये दूसरा कोई दोषी या अपराधी नहीं है । दु:ख पाने का कारण तो यह है कि पुरूष वर्तमान दु:ख से द्वेष करके अपने को उसका कर्ता मान बैठता है। ऋषि, देवता, बडे़-बडे़ असुर, तीनों वेदों के ज्ञान में बढे़ हुए विद्वान् पुरूष तथा वनवासी मुनि इनमें से किनके ऊपर संसार में आपत्तियॉ नहीं आती हैं; परंतु जिन्हें सत्-असत् का विवेक है, वे मोह या भ्रम में नही पड़ते हैं।
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