महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 228 श्लोक 59-73
अष्टाविंशत्यधिकद्विशततम (228) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उनके घरों में अनाज के दाने बिखरे रहते हैं और उन्हें कौए तथा चहू खाते हैं । वे दूध को बिना ढके छोड़ देते हैं और घी को जूठे हाथों से छू देतेहैं। दैत्यों की गृहस्वामिनियॉ घर में इधर-उधर बिखरे हुए कुदाल, दरॉती (या हॅसुआ) पिटारी, कॉसे के बर्तन तथा अन्य सब द्रव्यों और सामनों की देख-भाल नहीं करती हैं । उनके गॉवों और नगरों की चहारदिवारी तथा घर गिर जाते हैं; परंतु वे उसकी मरम्मत नहीं कराते हैं । दैत्यलोग पशुओं को घर में बॉध देते हैं, किंतु चारा और पानी देकर उनकी सेवा नहीं करते हैं। छोटे बच्चे आशा लगाये देखते रहते हैं और दानव लोग खाने की चीजें स्वयं खा लेते हैं । सेवकों तथा अन्य सब कुटुम्बीजनों को भूखे छोड़कर अपने खा लेते हैं। खीर, खिचड़ी, मांस, पुआ और पूरी आदि भोजन वे सिर्फ अपने खाने के लिये बनवाते हैं तथा वे व्यर्थ ही मांस खाया करते हैं। अब वे सूर्योदय होने तक सोने लगे हैं । प्रात:काल को भी रात ही समझते हैं । उनके घर-घरमें दिन रात कलह मचा रहता है। दानवों के यहाँअनार्य वहाँबैठे हुए आर्य पुरूष की सेवा में उपस्थित नहीं होते हैं । अधर्मपरायण दैत्य आश्रमवासी महात्माओं से तथा आपस में भी द्वेष रखते हैं।
अब उनके यहाँवर्णसंकर संताने होने लगी हैं । किसी में पवित्रता नहीं रह गयी है । जो स्पष्ट ही वेद की एक ऋचा भी नहीं जानते हैं, उन दोनों में वे दैत्यलोग कोई अन्तर या विशेषता नहीं समझते हैं और न उनका मान या अपमान करने में ही कोई अन्तर रखते हैं। वहाँकी दासियॉ सुन्दर हार एवं अन्य आभूषण पहनकर मनोहर वेष धारण करतीं और दुराचारिणी स्त्रियों की भॉति चलती-फिरती, खड़ी होती और कटाक्ष करती हैं । साथ ही वे उस कुकृत्य को अपनाती हैं, जिसका आचरण दुराचारीजन करते हैं। क्रीडा, रति और विहार के अवसरों पर वहाँकी स्त्रियॉ पुरूष वेष धारण करके और पुरूष स्त्रियों का वेष बनाकर एक-दूसरे से मिलते और बडे़ आनन्द का अनुभव करते हैं। कितने ही दानव पूर्वकाल में अपने पूर्वजों द्वारा सुयोग्य ब्राह्राणों को दान के रूप में दी हुई जागीरें नास्तिकता के कारण उनके पास रहने नहीं देते हैं यद्यपि वे अन्य सम्भव उपायों से जीवन निर्वाह कर सकते हैं तथापि उस दिये हुए दान को छीन लेते लेते है।
कहीं धन के विषय में संशय उपस्थित होनेपर अर्थात् यह धन न्यायत: मेरा है या दूसरे का, यह प्रश्न खड़ा होनेपर यदि उस धन का अधिकारी व्यक्ति अपने किसी मित्र से प्रार्थना करता है कि वह पंचायत द्वारा इस मामले को निपटा दे तो वह मित्र अपने बाल की नोक के बराबर स्वार्थ के लिये भी उस सम्पत्ति को चौपट कर देता है। दानवों के यहाँजो व्यापारी हैं, वे सदा दूसरों का धन ठग लेते है तथा ब्राह्राण, क्षत्रिय और वैश्यों में शूद्र भी मिलकर तपोधन बन बैठे हैं। कुछ लोग बह्राचर्य व्रत का पालन किये बिना ही वेंदों का स्वाध्याय करते हैं, कुछ लोग व्यर्थ (अवैदिक) व्रत का आचरण करते है। शिष्य गुरू की सेवा करना नहीं चाहता । कोई-कोई गुरू भी ऐसा है जो शिष्योंको दोस्त बनाकर रखता है। जब पिता और माता उत्सवशून्य की भॉति थक जाते हैं, तब घर में उनकी कोई प्रभुता नहीं रह जाती । वे दानों बूढे़ दम्पति बेटों से अन्न की भीख मॉगते हैं।
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