महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 139 श्लोक 19-41

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:५६, २० सितम्बर २०१५ का अवतरण ('==एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम (139) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम (139) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशतकम अध्याय: श्लोक 19-41 का हिन्दी अनुवाद

परंतु भीमसेन ने आधे निमेष में ही उसे काट दिया। इसी प्रकार तीसरे, चैथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चैदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें धनुष को भी भीमसेन ने काट डाला। इतना ही नहीं, भीम ने सत्रहवें, अट्ठारहवें तथा और भी बहुत से कर्ण के धनुषों को वेग पूर्वक काट दिया। इतने पर भी कर्ण आधे ही निमेष में दूसरा धनुष हाथ में लेकर खड़ा हो गया। कुरु, सौवीर तथा सिंधु देश के वीरों की सेना का विनाश, सब ओर गिरे हुए कवच, ध्वज तथा अस्त्र शस्त्रों से आच्छादित हुई भूमि और प्राण शून्य हाथी, घोड़े एवं रथियों से आचछादित हुई भूमि और प्राण शून्य हाथी, घोड़े एवं रथियों के शरीरों को सब ओर देखकर सूत पुत्र कर्ण का शरीर क्रोध से उद्दीप्त हो उठा। उस समय राधा नन्दन कर्ण ने कुपित हो अपने सुवर्ण भूषित विशाल धनुष की टंकार करते हुए भयानक भीमसेन को घोर दृष्टि से देखा। तत्पश्चात् सूत पुत्र कुपित हो बाणों की वर्षा करता हुआ शरत्काल के दोपहर के तजस्वी सूर्य की भाँति शोभा पाने लगा।
राजन् ! अधिरथ पुत्र कर्ण का भयंकर शरीर सैकड़ों बाणों से व्याप्त था। वह किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान जान पड़ता था। उस रण भूमि में दोनों हाथों से बाणों को लेते, धनुष पर रखते, खींचते और छोड़ते हुए कर्ण के इन कार्यों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था। भूपाल ! दायें - बायें बाण चलाते हुए कर्ण का मण्डलाकार धनुष अग्नि चक्र के समान भयंकर प्रतीत होता था । महाराज ! कर्ण के धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले अत्यन्त तीखे बाणों ने सम्पूर्ण दिशाओं तथा सेर्य की प्रभा को भी ढक दिया। तदनन्तर धनुष से छूटे हुए झुकी हुई गाँठ तथा सुवर्णमय पंख वाले बहुत से बाणों के समूह आकाश में दृष्टिगोचर होने लगे। राजन् ! अधिरथ पुत्र के धनुष से जो बाण छूटते थे, वे श्रेणबद्ध होकर आकाश में क्रौंच पक्षियों के समान सुशोभित होते थे। धनुष के बल से उठे हुए वे सुवर्ण भूषित बाण भीेसेन के रथ पर लगातार गिर रहे थे। कर्ण के चलाये हुए सहस्त्रों सुवर्णमय बाण आकाश में टिट्डी दलों के समान प्रकाशित हो रहे थे।
सूत पुत्र के धनुष से गिरते हुए बाण ऐसी शोभा पा रहे थे मानो एक ही अत्यन्त विशाल सा बाण आकाश में खड़ा हो । क्रोध में भरे हुए कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा से भीमसेन को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल जल की धाराओं से पर्वत को ढक देता है। भारत ! वहाँ सैनिकों सहित आपके पुत्रों ने भीमसेन के बल, वीर्य, पराक्रम और उद्योग को देखा। क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने समुद्र की भाँति उठी हुई उस बाण वर्षा की तनिक भी परवा न करके कर्ण पर धावा बोल दिया। प्रजानाथ ! सुवर्णमय पृष्ठ वाला भीमसेन का विशाल धनुष प्रत्यनचा खींचने से मण्डलाकार हो दूसरे इन्द्र धनुष के समान प्रतीत हो रहा था। उससे जो प्रकट होते थे, वे मानो आकाश को भर रहे थे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।