महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-3

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त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-3 का हिन्दी अनुवाद

ब्रहृाजी कहते है - देवताओं ! तदनन्‍तर उन श्रेष्‍ठतम ऋर्षियों ने अन्‍तरहित भगवान नारायण को नमस्‍कार करके महाबली गरूड से वहां इस प्रकार पूछना आरम्‍भ किया। ऋषि बोले – ‘विनतानन्‍दन ! जिस रोक-शोक से रहित वरदायक देवाधिदेव महात्‍मा नारायण की आप उपासना करते हैं, उनका प्राकट्य कहां से हुआ ? तथा वास्‍तव में कौन है ? । उनकी प्रकृति अथवा विकृति कैसी है ? उनकी स्थिति कहां है ? तथा वे नारायण देव कहां अपना घर बनाये हुए हैं ? वे सब बातें हम लोग आपसे पूछते हैं। कश्‍यप कुमार ! ये भगवान नारायण भक्‍तों के प्रिय हैं तथा भक्‍त भी उन्‍हें बहुत प्रिय हैं और आप भी उनके प्रिय एवं भक्‍त हैं । आपके समान दूसरा कोई उन्‍हें प्रिय नहीं है । उनका विग्रह इन्द्रियों द्वारा प्रत्‍यक्ष अनुभव में आने योग्‍य नहीं है । वे सबके मन और नेत्रों को मानों चुराये लेते हैं। उनका आदि, मध्‍य और अन्‍त नहीं है ।
हम इनके विषय में यह नहीं समझ पाते कि ये कहां से प्रकट हुए है ? वेदों में भी विश्‍वात्‍मा कहकर इनकी महिमा का गान किया गया है, परंतु हम यह नहीं जानते कि वे तत्‍वभूतस्‍वरूप नित्‍य सनातन प्रभु वस्‍तुत: कैसे हैं ? पृथ्‍वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि – ये पांच भूत, क्रमश: इन भूतों के गुण, भाव-अभाव, सत्‍व, रज, तम, सात्विक, राजस और तामस भाव, मन, बुद्धि और और तेज – ये वास्‍तव में बुद्धिगम्‍य हैं। तात ! ये सब उनहीं श्रीहरि से उत्‍पन्‍न होते हैं और वे भगवान इन सबमें व्‍यापकरूप में स्थित हैं । हम उनके विषय में अपनी बुद्धि के द्वारा नाना प्रकार से विचार करते हैं तथापि किसी उत्‍तम निश्‍चय पर नहीं पहुंच पाते, अत: आप यथार्थ रूप से हमें उनका तत्‍व बताइये। गरूडजी ने कहा – महात्‍माओं ! जो स्‍थूलस्‍वरूप भगवान हैं, वे तीनों लोकों की रक्षा के लिये उसी कारण भूत अपने स्‍वरूप से लोगों को दृष्टि गोचर होते हैं। मैंने पूर्वकाल में श्रीवत्‍सचिन्‍ह के आश्रयभूत सनातन देव श्रीहरि के विषय में जो महान् आश्‍चर्य की बात देखी है, वह सब बताता हूं, सुनिये। मैं या आप लोग कोई भी किसी तरह भगवान के यथार्थ स्‍वरूप को नहीं जान सकते । भगवान ने स्‍वयं ही अपने विषय में मुझसे जो कुछ जैसे कहा है, वह उसी रूप में सुनिये।
मुनिश्रेष्‍ठगण ! मैंने देवताओं के देखते-देखते उनके रक्षायन्‍त्र को विदीर्ण करके अमृत के रक्षकों को खदेड़कर युद्ध में इन्‍द्र और मरूद्गणों सहित सम्‍पूर्ण देवताओं को पराजित करके शीघ्र ही अमृत का अपहरण कर लिया। मेरे उस पराक्रम को देखकर आकाशवाणी ने कहा। गरूड कहते हैं – ऋषिगण ! आकाशवाणी की ऐसी बात सनुकर मैंने उस समय यों उतर दिया – ‘पहले मैं यह जानता चाहता हूं कि आप कौन हैं ? फिर मुझे वर दीजियेगा’। तब वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ वरदायक भगवान बड़े जो से हंसकर मेघ के समान गंभीर वाणी में प्रसन्‍नता-पूर्वक कहा – ‘समय आने पर मेरे विषय में तुम सब कुछ जान लोगो। पक्षियों में श्रेष्‍ठ गरूड ! मैं तुम्‍हें यह उत्‍तम वर देता हूं कि देवता हो या दानव, कोई भी इस संसार में तुम्‍हारे समान पराक्रमी न होगा, तुम मेरे अच्‍छे वाहन हो जाओ, मेरे सखा भाव को प्राप्‍त होने के कारण तुम सदा दुर्जय बने रहोगे’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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