गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 104

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गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

उस समय की विचार - पद्धति का यह आक्षेप - यद्यपि अर्जुन के मुख से यह बात बाहर नहीं हुई है, पर उसके मन में है, यह उसकी बाद की बातचीत से झलकता है - भगवान् गुरू ताड़ जाते हैं । वे कहते हैं कि नहीं ,इस प्रकार के संन्यास का अनिवार्य होना तो दूर रहा , ऐसे संन्यास का होना ही संभव नहीं है। “कोई प्राणी एक क्षण के लिये भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता; प्रकृतिजात गुण हर किसी से बरबस कर्म कराते ही हैं।“[१] इस महान् विश्वकर्म का और विश्व - प्रकृति की शाश्वत कर्मण्यता और शक्ति का यह स्पष्ट और गंभीर अनुभव गीता की एक विलक्षण विशेषता है । प्रकृति के इसी भाव पर तांत्रिक शाक्तों ने आगे चलकर बहुत जोर दिया ,उन्होंने तो प्रकृति या शक्ति को पुरूष से भी श्रेष्ठ बना दिया । प्रकृति या शक्ति की महिमा का गीता में यद्यपि मृदु संकेतमात्र है , फिर भी, उसके ईश्वरवादी और भक्तिवादी तत्वों की शिक्षा के साथ मिलकर यह महिमा काफी बलवान् हो गयी है और इसने प्राचीन दार्शनिक वेदांत की शांति - कामी प्रवृत्ति का संशोधन कर अपने योगमार्ग में कर्म की उपयोगिता को सिद्ध कर दिया है। प्रकृति के जगत् में शरीरधारी मनुष्य एक क्षण के लिये, एक पल - विपल के लिये भी कर्म नहीं छोड़ सकता; उसका यहां रहना ही एक कर्म है; सारा विश्वब्रह्माड ईश्वर का एक कर्म है, केवल जीतना भी उसी की एक क्रिया है। हमारा दैहिक जीवन ,उसका पालन , उसकी निरवच्छिन्न स्थिति एक यात्रा है, एक शरीरयात्रा है, और कर्म के बिना वह पूरी नहीं हो सकती ।
परंतु यदि कोई मनुष्य अपने शरीर को न पाले - पोसे यों ही बेार छोड़ दे , किसी वृक्ष - सा सदा चुप खड़ा रह जाये या पत्थर - सा अचल बैठा रहे तो भी इस वैटप या शैल अचलता से वह प्रकृति के हाथ से नहीं बच सकता ; प्रकृति के गुण - कर्म से उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। कारण केवल हमारे शरीर चलना - फिरना और अन्य कर्म करना ही कर्म नहीं है, हमारा मानसिक जीवन भी तो एक बहुत बडा जटिल कर्म है , बल्कि चंचला प्रकृति के कर्मो का यही बृहत्तर और महत्तर अंग है - हमारे बाह्म दैनिक कर्म का यही आंतरिक कारण और नियामक है। यदि हमने आंतरिक कारण की क्रिया को तो जारी रखा और उसके फलस्वरूप होने वाले बाह्म कर्म का निग्रह किया तो इससे कोई लाभ नहीं । इनिद्रयों के विषय हमारे बंधन के केवल निर्मित- कारण हैं, असल कारण तो मन का तद्विषयक आग्रह है। मनुष्य चाहे तो कर्मेनिर्द्रयों का नियमन कर सकता है और उन्हें उनकी स्वाभाविक कर्मक्रीड़ा से रोक सकता है, पर यदि उसका मन इन्द्रियों के विषयों का ही स्मरण और चिंतन करता रहे तो ऐसे संयम और दमन से कोई लाभ नहीं। ऐसा मनुष्य तो आत्म - संयम को कुछ - का - कुछ समझकर अपने – आपको भ्रम में डालता है ;।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.5

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