गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 244

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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

पहले जड़ सृष्टि प्रकट होती है, तब इनिद्रय - समूह , उसक बाद क्रम से मन और बुद्धि और अंत में आत्म – चैतन्य। बुद्धि जो पहले प्रकृति के कार्यो में ही लगी रहती है, पीछे इन कार्यो के यथार्थ स्वरूप को जान सकती है , यह देख सकती है कि यह केवल त्रिगुंण का खेल है जिसमें जीव फंसा हुआ है वह जीव को तथा त्रिगुण के इन कार्यो को अलग - अलग देख सकती है; और ऐसा होने पर जीव को यह मौका मिलता है कि वह इस बंधन से अपने - आपको छुड़ा ले और अपने मूल मुक्त स्वरूप और अक्षर सत्ता में लौट आये। तब वेदांत की परिभाषा में जीव आत्मा को, सत्ता को देखता है; प्रकृति के उपकरणों और कार्यो से, उसके भूतभाव से अपना तादात्म्य बंद कर देता है; अपनी सदात्मा के साथ , अपने सत्स्वरूप के साथ तादात्म होता और अपनी स्वतःसिद्ध अक्षर आत्मसत्ता को फिर से पा लेता है। गीता के अनुसार इसी आत्मस्थिति से वह मुक्त भाव से तथा अपनी सत्ता के ईश्वर से अपने भूतभाव के कर्म का आश्रय बन सकता है।
केवल उन मनोवैज्ञानिक तत्वों को देखते हुए, जिनपर ये दार्शनिक प्रभेद प्रतिष्ठित हैं- और इर्शन शास्त्र उस शास्त्र को कहते हैं जो जीवन के मनोवैज्ञानिक तथा भौतिक तथ्यों के तथा परम सद्वस्तु के साथ इनका क्या संबंध है इसके सारमर्म को हमें बौद्धिक रूप में दिखा देता है - हम यह कह सकते हैं कि हम दो तरह के जीवन बिता सकते हैं, एक है अपनी सक्रिय प्रकृति कार्यों में लीन जीव का जीवन , जिसमें जीव अपने आंतरिक और बाह्म उपकरणों के साथ तदाकार, उनसे परिच्छिन्न , अपने वयक्तित्व से बंधा, प्रकृति के अधीन होता है; और दूसरा है आत्मा का जीवन जो इन सब चीजों से श्रेष्ठ , विशाल, नैवयक्तिक, विश्वव्यापी , मुक्त, अपरिच्छिन्न, अतिवर्ती है और अपने असीम समत्व से अपनी प्राकृत सत्ता और कर्म को धारण करता पर अपनी मुक्त स्थिति और अनंत सत्ता से इनके परे रहता है । हम चाहें तो अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता में या अपनी महत्तर आत्मसत्ता में रह सकते हैं। यही वह पहला महान प्रभेद है जिसपर गीता का कर्मयोग प्रतिष्ठित है।इसलिये अब सारा प्रश्न और उपाय यही है कि अतंरात्मा को अपनी वर्तमान प्राकृत सत्ता की परिच्छिन्नताओं से मुक्त किया जाये। हमारे प्राकृत जीवन में सर्वप्रधान बात है हमारे जड़ प्रकृति के रूपों में, पदार्थो के बाह्म स्पर्शो के अधीन होना। ये रूप, ये स्पर्श इन्द्रियों के द्वारा हमारे प्राण के सामने आते हैं और प्राण तुरंत इन्द्रियों के द्वारा इन्हें पकड़ने के लिये दौड़ पड़ता और इनसे संबंध जोड़ता है, इनका कामना करता , इनसे आसक्त होता और फल की इच्छा करता है। मन में होने वाली सब सुख - दुःख - वेदनाएं, उसकी सब प्रतिक्रियाएं और तरंगें, उसके ग्रहण चिंतन और अनुभव के अभ्यस्त तरीके सभी इन्द्रियों के कम का ही अनुगमन करते हैं; बुद्धि भी मन के प्रभाव में आकर अपने - आपको इन्द्रियों के इस जीवन को सौंप देती है,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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