गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 126

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-126 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 126 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

अर्जुन ज्ञान प्राप्त करके अपने पुराने क्षत्रिय - स्वभाव के अनुसार कुरूक्षेत्र की लडा़ई लड़ सकता है अथवा उसे छोड़कर अपनी नवीन निवृत्तिमूलक प्रेरणा के अनुसार संन्यासी का जीवन अपना सकता है। इन दोनों में से वह कुछ भी करे, उसका महत्व नहीं , बल्कि यह कहा जा सकता है कि युद्ध की अपेक्षा संन्यासी का जीवन ही अधिक अच्छा है, क्योंकि इससे उसके पूर्व कर्मो की प्रवृति के कारण मन पर प्रकृति की जिन प्रेरणाओं का दखल जमा हुआ है वे शीघ्र क्षीण हो जायेगी और वह शरीर छूटने पर निविघ्न रूप से अनंत नैव्यक्तिक ब्रह्म में चला जायेगा, उसे इस दुःखमय प्रमादमय जीवन में लौटने की कोई आवश्यकता न रहेगी। यदि यही होता तो गीता का कोइ मतलब ही न रह जाता; क्योंकि इस बात से गीता का प्रथम और प्रधान उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। परंतु गीता इस बात पर जोर देती है कि कर्म का स्वरूप भी महत्वपूर्ण है और कर्म को जारी रखने के लिये एक निश्चयात्मक आदेश है और सर्वथा अभावत्मक और यांत्रिक कारण यानी प्रकृति की उद्देश्यहीन जबरदस्ती ही काफी नहीं है।
अहंकार को जीत लेने के बाद भी यज्ञ के भोक्ता भगवान् तो रहते ही हैं, इसलिये यज्ञ का उद्देश्य फिर भी रहता है। नैव्र्यक्तिक ब्रह्म ही अंतिम वचन या हमारी सत्ता का सर्वोत्तम रहस्य नहीं है; क्योंकि नैव्यक्ति और सव्यक्तिक , सांत और अनंत उसी भगवत सत्ता के दो विपरीत पर सहवर्ती पहलू हैं जो इन भेदों से सीमित नहीं है और एक साथ दोनों है। परमेश्वर एक , चिर - अव्यक्त अनंत है और वे अपने - आपको सांत में अभिव्यक्ति करने के लिये सदा स्वतः प्रेरित है; वे वह महान् नैव्द्धर्यक्त्कि पुरूष हैं जिनके सब व्यक्त्त्वि आशिंक रूप हैं; वे वह भगवान् हैं जो मानव - प्राणी में अपने - आपको प्रकट करते हैं , वे प्रभु हैं जो मनुष्य के हृदेश में निवास करते हैं। ज्ञान हमें उन्हीके एक नैव्र्यक्तिक ब्रह्म मे सब प्राणियों को देखने की शिक्षा देता है, क्योंकि इस तरह हम पृथग्भूत अहंभाव से मुक्त होते हैं और तब मुक्तिदायक नैवर्यक्तितत्व के द्वारा उनको इन प्रभु के अंदर देखते हैं, आत्मा के अंदर और तब मेरे अंदर। हमारा अहंकार, हमारे बंधनकारक व्यष्टिभाव ही उन प्रभु को पहचानने का रास्ता रोके रहते हैं जो सबके अंदर हैं और सब जिनके अंदर है; क्योंकि व्यष्टिभाव के अधीन होने के कारण हम उनके ऐसे खंड - खंड स्वरूपों को देख पाते हैं जिन्हें वस्तुओं के सात रूप देखने दें। हमें उनके पास अपने निम्न व्यष्टिभाव के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी सत्ता के उच्च ,अनंत और नैवर्यक्तिक अंश के द्वारा पहुंचना होगा; और वह हम आत्मा बनकर ही, जो सबके अंदर एक है और जिसकी सत्ता मे सारा जगत् अवस्थित है, उन प्रभू को पा सकते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध