गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 183

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गीता-प्रबंध
19.समत्व

योद्धा को अपने घावों से शारीरिक सुख नहीं मिलता न पराजित हाने पर उसे मानसिक संतोष ही होता , फिर भी युद्ध के देवत्व में उसे पूरा आनंद मिलता है , जो युद्ध उसके लिये जहां एक ओर पराजय और जखम लाता है वहां दूसरी ओर विजय भी दिलाता है। यहां पराजय और जखम की संभावना को और विजय की आशा को युद्ध के ताने - बाने के तौर पर स्वीकार करता है और उसमें रहने का आनंद खोजता है। युद्ध के जखम की स्मृति भी उसे हर्ष और गौरव देती है , पूरा हर्ष और गौरव तो तब होता है जब जखम की पीड़ा का अंत हो जाता है। परंतु प्रायः पीड़ा के रहते हुए भी ये उपस्थित रहते हैं और पीड़ा वास्तव में इनका पोषण करती हैं हार में भी अधिक बलवान् शत्रु का अदम्य प्रतिकार करने के कारण उसे हर्ष और गर्व होता है , अथवा यदि वह हीन कोटि का योद्धा हो तो उसे द्वेष और प्रतिशोध की भावनाओं से भी एक प्रकार का गह्र्म और क्रूर सुख मिलता है। इसी प्रकार आत्मा भी हमारे जीवन की प्राकृत क्रीड़ा का आनंद लेती रहती है।मन जीवन के प्रतिकूल आघातों से कष्ट और अरूचि के द्वारा पीछे हटता है ; यह आत्म - रक्षा - साधन में प्रकृति की युक्ति है जिसे जुगुत्सा कहते हैं , इसीके कारण हमारे स्नायु और शरीर के अतिकोमल अंग सहसा अपने ध्वंस का अलिंगन करने के लिये दौड़ नहीं पड़ते।
जीवन के अनुकूल स्पर्शो से मन को हर्ष होता है , यह प्रकृति का राजस भोग देकर प्रलोभन देना है, जिससे जीव की शक्ति जड़ता और अकर्मण्यता की तामसी प्रवृत्तियों को जीत सके और वह कर्म , कामना , सघर्ष और सफलता के लिये पूर्ण रूप से लग जायें और मन को इनके साथ आसक्त करके प्रकृति अपना प्रयोजन सिद्ध कर सके। हमारी गूढ़ आत्मा इस द्वन्द्व और संघर्ष में एक प्रकार का सुख अनुभव करती है, यह सुख उसे विषाद और दुःख में भी मिलता है। अतीत विपद् को याद करने और पीछे फिरकर देखने में तो उसे पूरा सुख मिलता ही है , पर जिस समय विपद् सिर पर हो उस समय भी वह आत्मा परदे के पीछे सुख लेती रहती है और प्रायः दुःखी मन के स्तर पर आकर भी उसके आवेश में सहारा देती है । परंतु जो चीज आत्मा को सचमुच आकर्षित करती है वह इस संसार का नानाविध द्वन्द्वो से भरा हुआ यह पदार्थ है जिसे हम जीवन कहते हैं, जो संघर्ष और कामना के विक्षोभ से , आकर्षण और विकर्षण से , लाभ और हानि से , हर प्रकार के वैचित्रय से भरा है। हमारे राजसिक कामनामय पुरूष को एकरस सुख , संघर्षरहित सफलता और आवरणरहित हर्ष कुछ काल बाद अवसादकर , नीरस , और अतृप्तिकर - सा लगने लगता है ; प्रकाश का पूरा सुख भोगने के लिये इसे अंधकर की पृष्ठभूमि चाहिये; क्योंकि वह जो सुख चाहता और भोगता हे वह ठीक उसी स्वभाव का , तत्वतः सापेक्ष होता है जो अपने विपरीत तत्व की प्रतीति और अनुभूति पर निर्भर है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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