गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 3

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गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

वह सदा प्राचीन शब्द-प्रयोगों और संकेतों को पीछे छोड़ती और नये शब्द और संकेत गढ़ा करती है, यदि प्राचीन प्रयोगों का फिर से उपयोग करती भी है तो उनके अर्थ या कम-से-कम उनके गूढ़ आशय या संगति को बहुत कुछ बदल देती है। हम आज किसी प्राचीन सद्ग्रंथ को समझना चाहें तो पूर्ण निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि जिस समय यह ग्रंथ उस समय के लोगों में उसे जिस भाव से देखा या उससे जो अर्थ ग्रहण किया ठीक उसी भाव और अर्थ को हम भी ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये ऐसे सद्ग्रंथों में संपूर्ण रूप से चिरंतन महत्व का विषय वही है, जो सर्वदेशीय होने के अतिरिक्त अनुभव किया हुआ हो, जो अपने जीवन में आ गया हो और बुद्धि की अपेक्षा किसी परे की दृष्टि से देखा गया हो। यदि किसी प्रकार यह जानना संभव भी हो की गीता किस शास्त्रीय परिभाषा से उस समय के लोग कौन-सा अर्थ ग्रहण करते थे तो भी मेरे विचार में, इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। आजतक जो भाष्य लिखे गये हैं और लिखे जा रहे हैं उनके परस्पर-मतभेद से स्पष्ट ही है कि यह जानना किसी तरह से संभव भी नहीं है; ये सब-के-सब एक दूसरे से भिन्न होने में ही एकमत हैं, प्रत्येक भाष्य को गीता में अपनी ही आध्यात्मिकता रीति और धार्मिक विचारधारा दिखायी देती है।
इस विषय मे चाहे कोई कितना ही अधिक प्रयास करे, कितना ही तटस्थ होकर देखे और भारतीय तत्वाधान के विकासक्रम के संबंध में चाहे जैसे उद्बोधक सिद्धांत स्थापित करने का प्रयत्न करे, पर यह विषय ही ऐसा है कि इसमें भूल होना अनिवार्य है। इसलिये गीता के विषय में हम यह कर सकते हैं, जिससे कुछ लाभ हो सकता है, कि इसके तत्वदर्शन से अलग जो प्रकृत जीते-जागते तथ्य हैं उन्हें ढूंढ़ें, हम गीता से वह चीज लें जो हमें या संसार को सहायता पहुंचा सके और जहां तक हो सके उसे ऐसी स्वभाविक और जीती-जागती भाषा में प्रकट करें जो वर्तमान मानव-जाति की मनोवृत्ति के अनुकूल हो और जिससे उसकी परमार्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में मदद मिले। इस प्रयास में हो सकता है कि हम बहुत-सी ऐसी भूलों को मिला दें जो हमारे व्यक्तित्व और इस समय के विशिष्ट संस्कारों से उत्पन्न हुई हों, इससे हमसे बड़े हमारे पूर्वाचार्य भी नहीं बच पाये हैं; परंतु यदि हम इस महत् सद्ग्रथ के भाव में अपने-आपको तल्लीन कर दें, और सबसे बड़ी बात यह है कि यदि हम उस भाव को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करते हों, तो इसमें संदेह नहीं है कि हम इस सद्ग्रंथ में से उतनी सद्ग्रथ में से उतनी सद्वस्‍तु तो ग्रहण कर ही सकेंगे जितनी के हम पात्र या अधिकारी हैं और साथ ही हमें इससे वह परामार्थिक प्रभाव और वास्तविक सहायता भी प्राप्त हो सकेगी जो व्यक्तिगत रूप से हम इससे प्राप्त करना चाहते थे। और, इसी को देने के लिये सद्ग्रथों की रचना हुई थी; बाकी जो कुछ वह शास्त्रीय वाद-विवाद या धार्मिक मान्यता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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