गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 56

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म[१]

अर्जुन की वेगवती शंकाओं की जो पहली बाढ़ आयी - जिसमें उसका चित्त संहार - कर्म से हट गया , जिसमें उसे दु:ख और पाप ही दीखने लगा, जीवन शून्य और निस्सार प्रतीत होने लगा, पाप कर्म से भविष्य में होने वाले पापमय परिणाम दिखाई देने लगे - उनका एक ही उत्तर भगवान् श्रीगुरू ने दिया और वह था एक बड़ी फटकार । उन्होनें कहा कि यह सब उसके मन की उथल - पुथल है , मन का भ्रम है, उसके हृदय का दौर्बल्य है , कापुरूषता है , उसके अपने क्षात्र तेज से , शूरवीर के पौरूष से च्युत होना हैं । यह पृथा के पुत्र को शोभा नहीं देता। धर्म -कार्य के प्रधान रक्षक को , जिस पर उसके सफल होने का सारा भरोसा है , ऐन मौके पर , ऐसे विकट संकट - काल में अपने हृदय और इंद्रियों के विद्रोह के वश होकर उसे छोड़ देना ठीक नहीं और न यह उसके लिये उचित है कि अपनी विवेक - बुद्धि पर परदा पड़ने दे ओर अपने संकल्प से च्युत होकर देवप्रदत्त गांडीव धनुष आदि शस्त्रों को नीचे रखकर भगवान् के सौपें हुए कर्म को करने से मुंह फेर ले । यह आर्यो की रीति नहीं है, यह भाव तो स्वर्ग से आया है , न स्वर्ग ले जाने वाला है । और , इस लोक में यह उस कीर्ति का नाश करने वाले है जो बल , वीर्य , पराक्रम और उदार कर्म से ही प्राप्त हुआ करती है।
इसलिये यही उचित है कि वह दस दुर्बल और आत्मकेंद्रित दया तो त्यागकर अपने शत्रुओं का संहार करने के लिये उठ खडा हो। क्या हम कहेगें कि यह तो एक वीर का दूसरे वीर को वीरोचित उत्तर है , लेकिन ऐसा नहीं जिसकी हम भागवत गुरू से आशा करते हैं; क्योंकि ऐसे गुरू से तो यही आशा की जाती है कि वे सदा मृदुता, साधुता एवं आत्मत्याग के भावों को तथा सांसरिक ध्येयों और दुनियादारी से विरक्त के भाव को ही प्रोत्साहित करेगें । गीता स्पष्ट कहती है कि अर्जुन अवीरोचित दुर्बलता में जा पड़ा था, “ उसके नेत्र आकुल और अश्रुपूर्ण हो गये थे, उसका हृदय विषाद से भर गया था,” कारण वह “ कृपाविष्ट ” - कृपा से आक्रांत - हो गया था । तब क्या यह दैवी दुर्बलता नहीं थी। कृपा क्या दैवी भावावेग नहीं है , इस प्रकार की कृपा को क्या ऐसी कड़ी फटकार के साथ निरूत्साहित करना चाहिये? अथवा हम किसी ऐसी शिक्षा के सामने तो नहीं आ पड़े जो केवल युद्ध और वीर कर्म का ही उपदेश देती हो , जो नीत्शे के सिद्धांत जैसी हो, जिसका ताकत और गर्वोन्मत्त बल ही एकमात्र धर्म है , जो इब्रानी और पुराने टयूटानिकों की कठोरता की तरह हो जिसमें कृपा एक दुर्बलता समझी जाती है और जो उस नारवेजियन वीर के भाव में चितंन करती है जो ईश्वर को इसलिये धन्यवाद देता था कि उसने उसको एक कठोर हृदय दिया था? परंतु गीता उपदेश भारतीय धर्म से निकला है और भारतीयों के लिये करूणा सदा से ही दैवी प्रकृति का एक प्रधान अंग मानी गयी है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता,द्वितीय अध्याय 1-38

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