श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-11

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तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः (11)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

मन्वन्तरादि काल विभाग का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! पृथ्वी आदि कार्य वर्ग का जो सूक्ष्मतम अंश है—जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूप को प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलने से ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदाय रूप एक अवयवी की प्रतीति होती है। यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरुप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्यों की एकता (समुदाय अथवा समग्र रूप)-का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्था भेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेद की ही कल्पना होती है। साधुश्रेष्ठ! इस प्रकार यह वस्तु के सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरुप का विचार हुआ। इसी के सदृश्य से परमाणु आदि अवस्थाओं में व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थों को भोगने वाले सृष्टि आदि में समर्थ, अव्यक्तस्वरुप भगवान् काल की भी सूक्ष्मता और स्थूलता का अनुमान किया जा सकता है। जो काल प्रपंच की परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थाओं में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टि से लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओं का भोग करता है, वह परम महान् है। दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओं के मिलने से एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखे में से होकर आयी हुई सूर्य की किरणों के प्रकाश में आकाश में उड़ता देखा जाता। ऐसे तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य को जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौ गुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेध का एक ‘लव’ होता है।
तीन लव को एक ‘निमेष’ और तीन निमेष को एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षण की एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठा का एक ‘लघु’। पन्द्रह लघु कि एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिका का एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिन के घटने-बढ़ने के अनुसार (दिन एवं रात्रि की दोनों सन्धियों के दो मुहूर्तों को छोड़कर) छः या सात नाडिका का एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्य के दिन या रात का चौथा भाग होता है। छः पल ताँबें का एक बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोने की चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वार उस बरतन के पेंदे में छेद करके उसे जल में छोड़ दिया जाय। जितने समय में एक प्रस्थ जल उस बरतन में भर जाय, वह बरतन जल में डूब जाय, उतने समय को एक ‘नाडिका’ कहते हैं। विदुरजी! चार-चार प्रहर के मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन—रात का के ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया। इन दोनों पक्षों को मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरों का एक दिन-रात है। जो मास का एक ’ऋतु’ और छः मास का एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और उत्तरायण’ भेद से दो प्रकार का है। ये दोनों अयन मिलकर देवताओं के एक दिन-रात होते है तथा मनुष्य लोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते है। ऐसे सौ वर्ष की मनुष्य की परम आयु बतायी गयी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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