श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 28-41

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:१७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः (11)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद

उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोको उन्हीं ब्रम्हाजी के शरीर में छिप जाते । उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुखसे निकली हुई अग्नि रुप भगवान् की शक्ति से जलने लगते हैं। इसलिये उसके ताप से व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं। इतने में ही सातों समुद्र प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन से उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरंगों से त्रिलोकी को डुबो देते हैं। तब उस जल के भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रा से नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोक निवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं। इस प्रकार काल की गति से एक-एक सहस्त्र चतुर्युग के रूप में प्रतीत होने वाले दिन-रात के हेर-फेर से ब्रम्हाजी की सौ वर्ष की परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है। ब्रम्हाजी की आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अब तक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा । पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राम्ह नामक महान् कल्प हुआ था। उसी में ब्रम्हाजी की उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्द ब्रम्ह कहते । उसी परार्ध के अन्त में जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान् के नाभि सरोवर से सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था। विदुरजी! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प-नाम से विख्यात है, इसमें भगवान् ने सूकर रूप धारण किया था। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है। यह परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादि में अभिमान रखने वाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ है। प्रकृति, महतत्व, अहंकार और पंचतन्मात्र—इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत—इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रम्हाण्ड कोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें ऐसी करोड़ो ब्रम्हाण्ड राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रम्ह कहलाता है और यही पुराण पुरुष परमात्मा श्रीविष्णु भगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरुप) है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-