महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-22
द्वितीय (2) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
युधिष्ठिरने कहा—बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सर्वशास्त्र- विशारद महाप्राज्ञ पितामह ! इस महत्वपूर्ण उपाख्यानको मैने बड़े ध्यानसे सुना है। नरेश्वर ! अब मैं पुन: आपके मुखसे कुछ और धर्म तथा अर्थयुक्त उपदेश सुनना चाहता हूँ, अत: आप मुझे इस विषयको विस्तार पूर्वक बताइये ॥२॥ भूपाल ! किस गृहस्थने केवल धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी है ? यह सब बातें आप यथार्थ रूप से कहिये। भीष्मजीने कहा—राजन् ! एक गृहस्थने जिस प्रकार धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी थी, उसके विषयमें एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। नरेश्वर ! प्रजापति मनुके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था इक्ष्वाकु । राजा इक्ष्वाकु सूर्य के समान तेजस्वी थे। उन्होंने सौ पुत्रोंको जन्म दिया। भारत ! उनमें से दसवें पुत्रका नाम दशाश्व था जो माहिष्मतीपुरीमें राज्य करता था। वह बड़ा ही धर्मात्मा और सत्यपराक्रमी था। दशाश्वका पुत्र भी बड़ा धर्मात्मा राजा था। उसका मन सदा सत्य, तपस्या और दानमें ही लगा रहता था। वह राजा इस भूतलपर मदिराश्वके नामसे विख्यात था और सदा वेद एवं धनुर्वेदके अभ्यासमें संलग्न रहता था।
मदिराश्व का पुत्र महाभाग, महातेजस्वी, महान् धैर्यशाली और महाबली द्युतिमान् नामसे प्रसिद् राजा हुआ। द्युतिमान् का पुत्र परम धर्मात्मा राजा सुवीर हुआ जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात था। वह धर्मात्मा, कोश (धन-भण्डार)-से सम्पन्न तथा दूसरे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी था। सुवीर का पुत्र दुर्जय नाम से विख्यात हुआ । वह सभी संग्रामों में शत्रुओं के लिये दुर्जय तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। इन्द्र के समान शरीरवाले राजा दुर्जय के एक पुत्र हुआ जो अश्विनीकुमारों के समान कान्तिमान था । उसका नाम था दुर्योधन । वह राजर्षियों में श्रेष्ठ महान राजा था। इन्द्र के समान पराक्रमी और यद्ध से कभी पीछे न हट्रने वाले राजा दुर्योधन के राज्य में इन्द्र सदा ठीक समय पर और उचित मात्रा में ही वर्षा करते थे। उनका नगर और राज्य रत्न, धन, पशु तथा भाँति-भाँति के धान्यों से उन दिनों भरा-पूरा रहता था। उनके राज्य में कहीं कोई भी कृपण, दुर्गतिग्रस्त, रोगी अथवा दुर्बल मनुष्य नहीं दृष्टिगोचर होता था। वह राजा अत्यन्त उदार, मधुरभाषी, किसी के दोष न देखने वाला, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, दयालु और पराक्रमी था । वह कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता था।
राजा दुर्योधन वेद-वेदांगों का पांगत विद्वान, यज्ञकर्ता, जितेन्द्रिय, मेधावी, ब्राह्मण भक्त और सत्यप्रतिज्ञ था । वह सबको दान देता और किसी का भी अपमान नहीं करता था। भारत ! एक समय शीतल जलवाली पवित्र एवं कल्याणमयी देवनदी नर्मदा उस पुरूषसिंह को सम्पूर्ण हृदय से चाहने लगी और उसकी पत्नी बन गयी। राजन ! उस नदी के गर्भ से राजा के द्वारा एक कमललोचना कन्या उत्पन्न हुई जो नाम से तो सुदर्शना थी ही, रूप से भी सुदर्शना (सुन्दर एवं दर्शनीय) थी ।। युधिष्ठिर ! दुर्योधन की वह सुन्दर वर्णवाली पुत्री जैसी रूपवती थी, वैसी रूप-सौन्दर्यशालिनी स्त्री नारियों में पहले कभी नहीं हुई थी। राजन ! राजकन्या सुदर्शनापर साक्षात अग्निदेव आसक्त हो गये और उन्होंने ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा से उस कन्या को माँगा। राजा यह सोचकर कि एक तो यह दरिद्र है और दूसरे मेरे समान वर्ण का नहीं है, अपनी पुत्री सुदर्शना को उस ब्राह्मण के हाथ में नहीं देना चाहते थे।
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