महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 125 श्लोक 18-35

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पञ्चविंशत्यधिकशततम (125) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

एक समय की बात हैए एक देवदूत ने अकस्मात् पहुँचकर आकाश में स्थित हो इन्द्र से कहा। वे जो कमनीय गुणों से सम्पन्न वैद्यप्रवर अश्विनीकुमार हैंए उन दोनों की आज्ञा से मैं यहाँ देवताओंए पितरों और मनुष्यों के पास आया हूँ। मेरे मन में यह जिज्ञासा हुई है कि श्राद्ध के दिन श्राद्ध-कर्ता और श्राद्धान्न भोजन करने वाले ब्राह्मण के लिये जो मैथुन का निषेध किया गया हैए उसका क्या कारण है तथा श्राद्ध में पृथक-पृथक तीर पिण्ड किसलिये दिये जाते हैं। प्रथम पिण्ड किसे देना चाहिये दूसरा पिण्ड किसे प्राप्त होता तथा तीसरे पिण्ड पर किसका अधिकार माना गया है यह सब कुछ मैं जानना चाहता हूँ। उस श्रद्धालु देवदूत के इस प्रकार धर्मयुक्त भाषण करने पर पूर्वदिशा में स्थित हुए सभी देवताओं और पितरों ने उस आकाशचारी पुरूष की प्रशंसा करते हुए कहा। पितर बोले आकाशचारियों में श्रेष्ठ देवदूत ! तुम्हारा स्वागत है। तुम कल्याण के भागी होओ । तुमने गूढ अभिप्राय से युक्त बहुत उत्तम प्रश्न उपस्थित किया है । इसका उत्तर सुना। जो पुरूष श्राद्ध का दान और भोजन करके स्त्री के साथ समागम करता है उसके पितर उस महीने भर उसी वीर्य में शयन करते हैं। अब मैं पिण्डों का क्रमशरू विभाग बताउँगा। श्राद्ध में जो तीन पिण्डों का विधान है उनमें पहला पिण्ड जल में डाल देना चाहिये । मध्यम पिण्ड केवल श्राद्धकर्ता की पत्नी को भोजन करना चाहिये और उनमें जो तीसरा पिण्ड है उसे आग में डाल देना चाहिये।
यही श्राद्ध की विधि बतायी गयी है जिसके अनुसार चलने पर धर्म का लोप नहीं होता । जो इस धर्म का पालन करता है उसके पितर सदाप्रसन्‍नचित्‍त एवं संतुष्ट रहते हैं । उसकी संतति बढती है और कभी क्षीण नहीं होती। देवदूत ने पूछा पितृगण ! आप लोगों ने क्रमशरू पिण्डों का विभाग बतलाया और तीनों लोकों में जो समस्त पितर हैं उनको पिण्डदान करने का शास्त्रोक्त प्रकार भी बतला दिया। किंतु पहले पिण्ड को उठाकर जो नीचे जल में डाल देने की बात कही गयी है उसके अनुसार यदि वह जल में डाला गया तो वह किस को प्राप्त होता है किस देवता को तृप्त करता है और किस प्रकार पितरों को तारता है। इसी प्रकार यदि गुरूजनों की आज्ञा के अनुसार मध्यम पिण्ड पत्नी ही खाती है तो उसके पितर किस प्रकार उस पिण्ड का उपभोग करते हैं। तथा अन्तिम जब अग्नि में डाल दिया जाता हैए तब उसकी क्या गति होती है वह किस देवता को प्राप्त होता है। यह सब मैं सुनना चाहता हूँ । तीनों पिण्डों की जो गति होती है उसका जो फल वृत्ति और मार्ग है तथा जो देवता उस पिण्ड को पाता है उन सब पर प्रकाश डालिये। पितरों ने कहा आकाशचारी देवदूत ! तुमने यह महान प्रश्न उपस्थित किया है और हम लोगों से अद्भुत रहस्य की बात पूछी है । देवता और मुनि भी इस पितृकर्म की प्रशंसा करते हैं। परन्तु वे भी इस प्रकार पितृकार्य के रहस्य को निश्चित रूप से नहीं जानते हैं । जो पिता के भक्त हैं और जिन महायशस्वी ब्राह्मण को वर प्राप्त हुआ हैए उन सर्वश्रेष्ठ चिरंजीवी महात्मा मार्कण्डेय को छोड़कर और किसी को उसका पता नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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