भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 229
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष
11.यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोअप्यकृतात्मानों नैनं पश्चन्त्यचेतसः।।
यत्नपूर्वक साधना में लगे हुए योगी लोग उसे आत्मा में स्थित देखते हैं, परन्तु अबुद्धिमान् और अनुशासनहीन आत्माओं वाले लोग यत्न करके भी उसे नहीं देख पाते।
12.यदादित्यगतं तेजो जगद्धासयतेअखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।
सूर्य में जो तेज है, जो इस सारे संसार को प्रकाशित करता है और चन्द्रमा में और अग्नि मे जो तेज है, उसको तू मेरा ही तेज समझ।
13.गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चैषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।
इस पृथ्वी में प्रविष्ट होकर मैं अपनी प्राण-शक्ति द्वारा सब प्राणियों को धारण करता हूं; और रस से भरा हुआ सोम (चन्द्रमा) बनकर मैं सब जड़ी-बूटियों (या वनस्पतियों) का पोषण करता हूं।
14. अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
जीवित प्राणियों के शरीर में मैं जीवन की अग्नि बनकर और उनके अन्दर आने वाले श्वास और बाहर निकलने वाले श्वास में मिलकर मैं चारों प्रकार अन्नों को पचाता हूं।पचामि: शब्दार्थ है पकाना।
15.सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिज्र्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।
और मैं सबके हृदय में बैठा हुआ हूं; मुझसे ही स्मृति और ज्ञान तथा उनका विनाश होता है। वस्तुतः मैं ही वह हूं, जिसको सब वेदों द्वारा जाना जाता है। मैं ही वेदान्त का बनाने वाला हूं और मैं ही वेदों का जानने वाला हूं।[१]अपोहनम्: हानि, विनाश, निषेध।
परम पुरुष
16.द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एवं च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोअक्षर उच्यते।।
इस संसार में दो पुरुष हैं- एक नश्वर और दूसरा अनश्वर; नश्वर ये सब अस्तित्व (वस्तु एवं व्यक्ति) हैं और अपरिवर्तनशील (कूटस्थ) अनश्वर है।
17.उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य विभत्र्यव्यय ईश्वरः।।
परन्तु इनसे भिन्न एक और सर्वात्तम आत्मा है, जिसे परम आत्मा कहा जाता है, जो अमर ईश्वर के रूप में इन तीनों में प्रविष्ट होता है और इनका भरण-पोषण करता है।सदा परिवर्तनशील विश्व में विद्यमान आत्मा क्षर है; अक्षर वह नित्य आत्मा है, जो अपरिवर्तनशील है, गतिहीन है और जो परिवर्तनशील वस्तुओं में भी अपरिवर्तनशील है।[२] जब आत्मा इस अपरिवर्तनशील की ओर अभिमुख होजाती है, तब सांसारिक गतिविधि उससे छूट जाती है और वह आत्मा अपने अपरिवर्तनशील नित्य अस्तित्व में पहुंच जाती है। ये दोनों परस्पर ऐसे विरोधी नहीं हैं, जिनमें कि मेल हो ही न सकता हो, क्योंकि ब्रह्म एक और अनेक दोनों ही हैं, वह नित्य ही अजन्मा है और साथ ही विश्व के रूप में प्रवहमान भी है।गीता की दृष्टि में यह गतिमय जगत् भगवान् की सृष्टि है। ब्रह्म इस संसार को अपना लेता है और इसमें कर्म करता है; वर्त एवं च कर्माणि। विश्व के उद्देश्य की दृष्टि से भगवान् ईश्वर है, पुरुषोत्तम, सारे संसार का स्वामी, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है।[३]परम आत्मा: सर्वोच्च आत्मा। आत्मा में विद्यमान ईश्वर। गीता का संकेत यहां अज्ञात-अथाह परमेश्वर की ओर नहीं है, अपितु उस ईश्वर की ओर है, जो इस सृष्टि हके अन्दर बसा हुआ है और इसे चला रहा है। गीता उस व्यक्तिक परमात्मा की धारणा की स्तुति करती है, जो अपने में कालातीत अस्तित्व (अक्षर) और लौकिक आरम्भ (क्षर) इन दोनों को मिलाए हुए है।शंकराचार्य ने परिवर्तनशील (क्षर) की व्याख्या इस परिवर्तित होते हुए संसार के रूप में और अपरिवर्तनशील (अक्षर) की व्याख्या माया- शक्ति या ईश्वर की शक्ति के रूप में की है और भगवान् को नित्य, शुद्ध बुद्ध और क्षर और अक्षर की परिमितियों से मुक्त बताया है।रामानुज ’अक्षर’ का अर्थ मुक्त आत्मा लेता है। इस संसार में दो सार तत्व हैं, जिनमें से एक आत्मा है और दूसरा जड़ (निर्जीव); ये ही अक्षर और क्षर हैं। इन दोनों से ऊपर परमात्मा है, जो विश्व से परे है और साथ ही विश्व में व्याप्त भी है। दो पुरुषों की व्याख्या दो प्रकृतियों के रूप में भी की जा सकती है; एक तो परमात्मा की अपनी सारभूत प्रकृति, अध्यात्म, और दूसरी निम्नतर प्रकृति, प्रकृति। श्वेताश्वतर उपनिषद् से तुलना कीजिए, 1, 10।
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