पथरी

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लेख सूचना
पथरी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 286
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डा० मुकुंदस्वरूप वर्मा


अश्मरी या पथरी शरीर में, विशेषकर मूत्राशय, वृक्क तथा पित्ताशय में, जमे ठोस द्रव्य को कहते हैं। यह लाला ग्रंथियों में तथा कई कई अन्य अंगों में भी बन जाती है, जिसका नीचे संक्षिप्त उल्लेख किया गया है। वृक्क और मूत्राशय की अश्मरियां कैलसियम फ़ॉस्फ़ेट, आक्ज़लेट तथा सोडियम-ऐमोनियम यूरेट होती हैं। वे ज़ैंथीन सिस्टीन से भी बन सकती हैं। पित्ताशय की अश्मरी कौलस्टरीन की बनी होती है, जिसमें बहुधा चूना भी मिला रहता है।

अश्मरी में एक केंद्र होता है जिसके चारों ओर चूने आदि के स्तर एक पर एक एकत्र होते रहते हैं। केंद्र रक्त के थक्के, ष्लेष्मिक कला के टुकड़े, जीवाणु, श्वेतकणिकाओं आदि से बन सकता है। इसके चारों ओर लवणों के स्तर जमा हो जाते हैं। इस कारण अश्मीरी को काटने पर स्तरित रचना दिखाई देती है।

मूत्राशय की अश्मरी-हमारे देश में राजस्थान में तथा पर्वतीय प्रांतों में यह रोग अधिक पाया जाता है। वहाँ पीने के जल में लवणों की अधिकता रोग का कारण प्रतीत होती है। चर्म से अधिक वाष्पीभवन होने के कारण मूत्राशय की अतिसांद्रता भी अश्मरीनिर्माण का कारण हो सकती है। अश्मरी यूरिक अम्ल, ऐमोनिया के यूरेट लवण, चूने के फ़ास्फ़ेट तथा ऑक्ज़लेट लवणों से बनती है। सिस्टीन (विषाणिन-सींग, बाल इत्यादि में पाया जानेवाला एक पदार्थ) और ज़ैथीन (पीत-श्वेत, रवेदार पदार्थ, जिससे अनेक पीले रंग के यौगिक बनते हैं) की कश्मीरी भी पाई जाती है। फ़ास्फ़ेट की अश्मरी चिकनी और भुरभुरी होती है जो दबाने से ही टूट जाती है। यूरेट की इससे कड़ी होती है। ऑक्ज़लेट की अश्मरी सबसे कड़ी होती है। उसपर दाने या कंगूरे से उठे होते हैं जिनके कारण मूत्राशय की श्लेष्मिक कला से रक्तस्राव होता रहता है। इस कारण अश्मरी का रंग रक्त के मिल जाने से गहरा लाल होता है। ऐसी अश्मरी से रोगी को पीड़ा अधिक होती है।

जब अश्मीरी मूत्रमार्ग के अंतर्द्वार पर, जिससे मूत्राशय से मूत्र निकलता है, स्थित होकर मूत्रप्रवाह को रोक देती है तब रोगी का पीड़ा होती है। किंतु यदि रोगी अपनी स्थिति बदल दे, पार्श्व से लेट जाए, तो बहुधा अश्मरी के स्थानांतरित हो जाने से मूत्रमार्ग खुल जाता है और मूत्र निकल जाता है जिससे रोगी की पीड़ा जाती रहती है। मूत्र का रुकना ही रोग का विशेष लक्षण है।

यह रोग बच्चों में अधिक होता है और स्त्रियों के अपेक्षा पुरुषों में अधिक पाया जाता है। साधारणत: एक अश्मरी बनी रहती है। जब अधिक अश्मरियाँ रहती हैं तो आपस में रगड़ने से उरनपर चिह्न बन जाते हैं। एक्स-रे फोटो में अश्मरी की छाया दिखाई देती है। इस कारण एक्स-रे चित्र लेने से निदान निश्चित हो जाता है।

1. मूत्राशय की अश्मरी का काट; यह अश्मरी 1.5चौड़ी और 1.9 लंबी थी। 2. वृक्क की अश्मरी; यह मुख्यत: कैलसियम ऑक्जलेट की बनी है।

चिकित्सा - (1) अश्मरीभंजन कर्म में भंजक (लिथोट्राइट) से मूत्राशय के भीतर की अश्मरी को तोड़कर चूर्ण कर दिया जाता है और चूषकयंत्र (ईवैकुएटर) द्वारा उसको बाहर खींच लिया जाता है। (2) शल्यकर्म द्वारा उदर के निचले भाग में भगसंधानिका के ऊपर मध्यरेखा में तीन इंच लंबा छेदन करके मूत्राशय के स्पष्ट हो जाने पर उसका भी छेदन करके अश्मरी को संदंश से पकड़ कर निकाल लेते हैं और फिर मूत्राशय तथा उदर के छिन्न-भिन्न भागों को सी देते हैं।

वृक्क की अश्मरी- वृक्क के प्रांतस्थ भाग में या श्रोणि (पेल्विस) में स्थित, बड़े आकार की अश्मरी से, जिसके कुछ भाग वृक्कवस्तु में धंसे हों, कोई लक्षण नहीं उत्पन्न होते। ऐसी अश्मरियाँ शांत अश्मरियाँ कहलाती हैं। छोटी चलायमान अश्मरियाँ दारुण पीड़ा का कारण होती हैं।

अश्मरी के निर्माण के कारणों का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है, किंतु पिछले कुछ वर्षों के अनुसंधान से अश्मरीनिर्माण का संबंध भोजन से प्रतीत होता है। आहार में चूने के यौगिकों की अधिकता और विटामिन ए की कमी अश्मरीनिर्माण में सहायक होती है। विटामिन ए की कमी में वृक्कप्रणालिकाओं की श्लेष्मिक कला क्षत हो जाती है। उसके कुछ भाग गल से जाते हैं जो अश्मरीनिर्माण के लिए केंद्र का काम करते हैं। फिर संक्रमण भी सहायक कारण होता है जिससे श्लेष्मिक कला की कोशिकाएँ शोथयुक्त हो जाती हैं और उनकी पारगम्यता (पर्मिएबिलिटी) बदल जाती है। शारीरिक, भौतिक तथा रासायनिक दशाओं का भी प्रभाव पड़ता है। शरीर के प्रत्येक भाग में अश्मरीनिर्माण के संबंध में ये ही दशाएँ लागू हैं। जिन रोगों में अस्थिक्षय होने से, कैससियम मुक्त होता है उनमें अश्मरी बनने के लिए चूना उपलब्ध हो जाता है। परावटुका (पैराथाइराइड) की अतिवृद्धि या अर्बुदों से भी यही परिणाम होता है। जिन दशाओं में मूत्र रुक जाता है उनमें भी ऐसा ही होता है।

रोग के साधारण लक्षण - कटिपार्श्व और वृक्क के पीछे के प्रांत में हलका सा दर्द सदा बना रहता है। मूत्र में रक्त आता है जो इतना थोड़ा हो सकता है कि वह केवल अणुवीक्षक द्वारा ही दिखाई दे। छोटी चलायमान अश्मरी से तीव्र पीड़ा हो सकती है जो पीठ से प्रारंभ होकर सामने से होती हुई नीचे पेड़ू और शिश्न में जाती हुई प्रतीत होती है। यदि अश्मरी श्रोणी (गोणिका) या कैलिसों में भरकर मूत्रप्रणालिकाओं के मुखों को बंद कर देती है और मूत्र का प्रवाह रुक जाता है तो कैलिसों का, जिनमें मूत्र एकत्र रहता है, आकर विस्तृत हो जाता है और उनके विस्तार से वृक्क वस्तु नष्ट हो जाती है। इस दशा को जलातिवृक्कविस्तार (हाइड्रोनफ्ऱेोसिस) कहते हैं। यदि किस प्रकार संक्रमण पहुँच जाता है तो वहाँ पूय (पस) बनकर एकत्र होती है। यह पूतिवृक्क विस्तार (पायोनेफ़ोसिस) कहा जाता है।

निदान -निदान लक्षणों और एक्स-रे द्वारा किया जाता है। मूत्रपरीक्षा तथा अन्य परीक्षाएँ भी आवश्यक हैं।

चिकित्सा -यदि एक ही अश्मरी है तो शल्यकर्म करके उसको गोणिका द्वारा निकाल दिया जाता है। एक से अधिक अश्मरियाँ होने पर तथा प्रांतस्था में स्थित होने पर और वृक्कवस्तु के नष्ट हो जाने पर संपूर्ण वृक्क का ही छेदन (नफ्ऱेैक्टोमी) करना पड़ता है।

पित्ताशय की अश्मरी - पित्ताशय की अश्मरियाँ शुद्ध कॉलेस्टरीन की या बिलिर्यूबिन कैलसियम की बनी रहती हैं। एक्स-रे से इनकी कोई छाप नहीं बनती। उनकी हल्की सी छाया केवल उस समय बनती है जब उनपर कैलसियम चढ़ा रहता है। एक से लेकर कई सौ अश्मरियाँ पित्ताशय में उपस्थित हो सकती हैं। एक अश्मरी बड़ी और गोल या लंबोतरी सी होती है। अधिक अश्मरियों के होने पर वे एक दूसरे को रगड़कर चौपहल या अठपहल हो जा सकती हैं। किंतु प्राय: इनके कारण पित्ताशय की भित्तियों में शोथ उत्पन्न हो जाता है जिसका पित्ताशयार्ति (कॉलीसिस्टाइटिस) कहते हैं। इसके उग्र और जीर्ण दो रूप होते हैं। उग्र रूप में लक्षण तीव्र होते हैं। रोग भयंकर होता है। जीर्ण रूप में लक्षण मंद हाते हैं और बहुत काल तक बने रहते हैं। स दशा का संबंध अश्मरी की उत्पत्ति के साथ विशेष रूप से है। इससे अश्मरी उत्पन्न होती है और अश्मरी से जीर्ण शोथ उत्पन्न होता है। इसी के कारण रोग के लक्षण उत्पन्न होते हैं। स्वयं अश्मरी लक्षण नहीं उत्पन्न करती। जब कोई छोटी अश्मरी पित्ताशय से पित्तनलिका अथवा संयुक्ता पित्तवाहिनी (कॉमन बाइल डक्ट) में चली जाती है तो नलिका में आकुंचन होने लगता है जिससे दारुण पीड़ा होती है। इसको पित्तशूल (बिलियरी कॉलिक) कहते हैं। रोगी पीड़ा को उदर में दाहिनी ओर नवीं पर्शुका के अग्र प्रांत से उरोस्थि के अग्रपत्रक (ज़िफाइड प्रोसेस) तक और पीछे पीठ में अंसफलक के अधोकोण तक अनुभव करता है। यह पीड़ा अत्यंत दारुण तथा असहाय होती है। रोगी छटपटाता है। इससे मृत्यु तक होती देखी गई है।

चिकित्सा - अश्मरी को शल्यकर्म द्वारा निकालना आवश्यक है। यदि रोग बहुत समय से है और जीर्ण शोथ भी है तो पित्ताशय का संपूर्ण छेदन उचित है। वेदना के समय, जिसको रोग का आक्रमण कहा जाता है, शामक औषधियाँ, विशेषकर मॉर्फ़िन या उसी के समान अन्य औषधियाँ, देकर पीड़ा दूर करना अत्यंत आवश्यक है।

अन्य स्थानों की अश्मरी - मूत्रवाहिनी (यूरेटर) में अश्मरी-मूत्रवाहिनी में अश्मरी बनती नहीं। छोटे आकार की अश्मरियाँ वृक्क से मूत्रप्रवाह के साथ आ जाती हैं, जो बहुत छोटी होती हैं (वे रेत के कण के समान हो सकती हैं) वे मूत्रप्रवाहिनी (गवीनी) में होती हुई मूत्राशय में चली जाती हैं। जब मूत्रवाहिनी के व्यास के बराबर की कोई अश्मरी वहाँ फँस जाती है, जिससे मूत्रवाहिनी में आक्षेप होने लगते हैं, तो उससे दारुण वेदना होती है और जब तक अश्मरी निकल नहीं जाती, निरंतर होती रहती है। इससे मृत्यु तक हा जाती है।

लालग्रंथियों में अश्मरी - ऊर्ध्वहन्वाधर ग्रंथि (सब्मैग्ज़लरी ग्लैंड) और उनकी नलिका में अश्मरियाँ अधिक बनती हैं। ये कर्णमूल ग्रंथि (पैरोटिड) की नलिका में भी पाई जाती हैं। नलिकाओं के अवरुद्ध हो जाने से ग्रंथि का स्राव मुख में नहीं पहुँच सकता। ग्रंथि में अश्मरी के स्थित होने के कारण ग्रंथि बार-बार सूज जाती है जिससे बहुत पीड़ा होती है। ग्रंथि को निकाल देना आवश्यक होता है। लेखक ने एक रोगी में दोनों ओर की ऊर्ध्वहन्वाधर ग्रंथियों में तीन और चार अश्मरियाँ निकालीं, जिनकी रासायनिक परीक्षा करने पर वे कैलसियम कार्बोनेट और फ़ॉस्फ़ेट की बनी पाई गईं।

अग्न्याशय में अश्मरी (पैंक्रिऐटिक) - ये कैलसियम कार्बोनेट और मैगनीसिया फ़ॉस्फ़ेट की बनी होती हैं। ये असाधारण हैं और अग्न्याशय की नलिका में मिलती हैं। इनके कोई विशिष्ट लक्षण नहीं होते। प्राय: उदर का एक्स-रे लेने से अकस्मात्‌ इस प्रकार की अश्मरी की छाया दिखाई दे जाती है।

आंत्र की अश्मरी (एँटरोलिथ) - आंत्र में मल के शुष्क होने से कड़े पिंड बनते हैं तो कभी-कभी बद्धांत्र की दशा उत्पन्न कर देते हैं।

पुर:स्थ (प्रॉस्टेट) की अश्मरी - पुर:स्थ में भी कैलसियम के कार्बोनेट और फ़ास्फ़ेट लवणों के एकत्र होने से अश्मरी बन जाती है। इसके लक्षण मूलाधार प्रांत में भारीपन, पीड़ा तथा मूत्रत्याग में पीड़ा होते हैं। गुदपरीक्षा तथा एक्स-रे से इनका निदान किया जाता है।

शिश्न में अश्मरी - कभी-कभी मूत्राशय से आकर अश्मरी शिश्न में अटक जाती है। उचित साधनों द्वारा उसको निकालना आवश्यक है।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-हैडफ़ील्ड जोन्स : सर्जरी; नेल्सन : एन्सायक्लोपीडिया ऑव सर्जरी।