अर्धमागधी
अर्धमागधी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 244 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. जगदीशचंद्र जैन |
अर्धमागधी प्राचीन काल में मगध की भाषा थी। जैन धर्म के प्रतिष्ठाता महावीर ने इसी भाषा में अपने धर्मोपदेश किए थे। लोकभाषा होने के कारण यह आसानी से स्त्री, बालक, वृद्ध और अनपढ़ लोगों की समझ में आ सकती थी। आगे चलकर महावीर के शिष्यों ने अर्धमागधी में महावीर के उपदेशों का संग्रह किया जो आगम नाम से प्रसिद्ध हुए। समय-समय पर जैन आगमों की तीन वाचनाएँ हुईं। अंतिम वाचना महावीरनिर्वाण के 1,000 वर्ष बाद, ईसवी सन् की छठी शताब्दी के आरंभ में, देवर्धिगणि क्षमाक्षमण के अधिनायकत्व में वलभी (वला, काठियावाड़) में हुई जब जैन आगम वर्तमान रूप में लिपिबद्ध किए गए। इसी बीच जैन आगमों में भाषा और विषय की दृष्टि से अनेक परिवर्तन हुए, जो स्वाभाविक था। इन परिवर्तनों के होने पर भी आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशैवकालिक आदि जैन आगम पर्याप्त प्राचीन और महत्वपूर्ण हैं। ये आगम श्वेतांबर जैन परंपरा द्वारा ही मान्य हैं, दिगंबर जैनों के अनुसार ये लुप्त हो गए हैं।
हेमचंद्र आचार्य ने अर्धमागधी को आर्ष प्राकृत कहा है। अर्धमागधी शब्द का कई तरह से अर्थ किया जाता है: (क) जो भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती हो, (ख) जिसमें मागधी भाषा के कुछ लक्षण पाए जाते हों, जैसे पुलिंग में प्रथमा के एकवचन में एकारांत रूप का होना (जैसे धम्मे)। आगमों के उत्तरकालीन जैन साहित्य की भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उस समय मगध के बाहर भी जैन धर्म का प्रचार हो गया था। भाषाविज्ञान की परिभाषा में अर्धमागधी मध्य भारतीय आर्य परिवार की भाषा है; इस परिवार की भाषाएँ प्राकृत कही जाती हैं। मध्य भारतीय आर्य परिवार की भाषा होने के कारण अर्धमागधी संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-ए.एम. घाटगे : इंट्रोडक्शन टु अर्धमागधी (1941); बेचरदास जीवराज दोशी : प्राकृत व्याकरण (1925)।