अर्जुन वृक्ष

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:२३, २ दिसम्बर २०१६ का अवतरण ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
अर्जुन वृक्ष
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 238
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्री भगवानदास वर्मा


अर्जुन एक वृक्ष है जिसका नाम संस्कृत तथा बंगला में भी यही है। संस्कृत में अर्जुन शब्द का अर्थ श्वेत है। इसके वृक्ष जंगलों में 60 से 80 फुट तक ऊँचे, नदियों के किनारे, दक्षिण भारत से अवध तक तथा ब्रह्मदेश और लंका में भी पाए जाते हैं। इसके पत्ते पाँच अंगुल तक चौंड़े और एक बित्ता तक लंबे होते हैं तथा इनके पीछे दो गाँठें सी होती हैं। इन पत्तों को टसर के कीड़ों को खिलाया जाता है। फूल बहुत छोटे और हरी झाँई लिए श्वेत होते हैं। इसका गोंद श्वेत होता है और खाने तथा औषधि के काम आता है। परंतु इसकी छाल ही विशेष गुणकारी कही गई है।

छाल में लगभग 15 प्रतिशत टैनिन होता है। आयुर्वेदिक चिक्तिसा में इसके क्वाथ से नासूर तथा जला हुआ स्थान धोने का ओर हृदयरोग में दूध के साथ पिलाने का विधात है। छाल का चूर्ण दूध और राब के साथ अस्थिभंग में और चोट से विस्तृत नील पड़ जाने पर खिलाया जाता है।

आयुर्वेद में अर्जुन को कसैला, गरम, कफनाशक, ब्रणाशौधक, पित्त, श्रम और तृषा निवारक तथा मूत्रकृच्छ्र रोग में हितकारी कहा गया है। प्राय: सब आयुर्वेदशास्त्रियों ने इसे हृदयरोग में लाभकारी माना है।

अर्जन की लकड़ी से नाव, गाड़ी खेती के औजार, इत्यादि बनते हैं, और छाल रंगने के काम में आती है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ