कुब्ले खॉं

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लेख सूचना
कुब्ले खॉं
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 63
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मोहम्मद यासीन

कुब्ले खाँ(1216-1294) मंगील सम्राट् तथा चीन के युवान वंश का संस्थापक; चंगेल खाँ के सबसे छोटे पुत्र तुली का द्वितीय पुत्र। कुब्ले बचपन से ही इतना होनहार था कि चंगेज खाँ ने एक बार अपने पुत्रों से कहा था कि तुममे से किसी प्रकार की शंका हो तो इस लड़के (कुब्ले) से पूछ लेना।

जब तुली का ज्येष्ठ पुत्र मंगु सिंहासन पर बैठा, उसने कुब्ले को किन नामक प्रांत का वाइसराय नियुक्त किया और दक्षिणी चीन के विरुद्ध, जो सूँग लोगों के आधिपत्य में था, युद्धसंचालन का भार सौंपा। वह यूनान प्रांत में भी शांति स्थापित करने में सफल हुआ और उसके सेनापति उरियांग कटाई-साबुठाई के पुत्र-ने कुछ ही दिनों बाद तोंकिंग पर भी अधिकार कर लिया।

मंगू के वाइसराय के रूप में कुब्ले ने युद्धसंचालन का ही भार अपने ऊपर रखा और जीते हुए भागों में शासन का भार उसने चीन के ही अधिकारियों को सौंपा। मंगू को यह रुचिकर न हुआ और उसने कुब्ले को वापस बुला लिया।

मंगू ने जब सूँग लोगों के विरुद्ध मोर्चा स्थापित किया और दक्षिणी चीन के साम्राज्य पर तीन ओर से आक्रमण किया; उस समय कुब्ले ने उत्तर में होनान से प्रांरभ करके यांगसी नदी के उत्तरवाले भाग पर विजय प्राप्त की और नदी पारकर वू-चांग के बड़े नगर पर भी आक्रमण किया। मंगोलों को सफलता मिली। किन साम्राज्य तथा सूँग लोगों के बीच एक नई सीमा निर्धारित की गई। सूँग लोगों के विरुद्ध यह संघर्ष अभी चल ही रहा था कि 1259 ई. में मंगू की मृत्यु हो गई।

तत्काल कुब्ले ने अपने मंगोली संबंधियों से, जो चीन की सेना में उच्चाधिकारी थे, तथा चीन के प्रांतों में जो मंगोल वाइसराय थे, मिलकर अपने ‘खकान’ होने की घोषणा कर दी और चीनी राजकुमारों एवं सेना तथा प्रशासकीय उच्चाधिकारियों द्वारा अपने को ईश्वर का पुत्र घोषित करा दिया और चीन साम्राज्य का भी उत्तराधिकारी बन बैठा। उसने अपना निवास मंगोलिया से हटाकर येनकिंग के विशाल तथा प्राचीन नगर में लाकर संसार पर प्रभुत्व रखनेवाली धुरी को अपनी जगह से हटा दिया। इस प्रकार चीन पर प्रभुत्व प्राप्त करनेवाले मंगोल ने मंगोलिया को, जो चंगेज खाँ के समय संसार के साम्राज्य का केंद्र था, चीन के विस्तृत साम्राज्य का केवल सैनिक महत्व का प्रांत बना दिया और वहाँ के शासन को चीन के अंतर्गत कर दिया।

कुब्ले ने तीन सौ वर्षों से भी अधिक काल तक राज्य करनेवाले सूँग शासन को समाप्त कर दिया और चीन इतिहास में पहली बार साम्राज्य विदेशी शासन में होते हुए भी एक सूत्र में बँध गया जो प्रजातंत्र स्थापित होने के कुछ दिन पहले तक बना रहा।

कुब्ले खाँ अपने को चीन का विजेता नहीं मानता था। उसपर चीन के अति प्राचीन रीति-रिवाजों तथा उसकी सभ्यता का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसने धीर- धीरे अपनी जाति की राष्ट्रीय परंपराओं को छोड़कर मध्यम राज (चीन) की युगों पुरानी परंपराओं को अपना लिया।

कुब्ले ने विज्ञान तथा कला की रक्षा की एवं संसार के प्रधान विद्वानों, चित्रकारों, कवियों, वास्तुविशारदों तथा इंजीनियरों को अपने यहाँ आमंत्रित किया। उसने शाही नहर को खुदवाने का कार्य पूरा कराया जिसका अधिकांश निचली यांगसी को पीली नदी से मिलानेवाले नहरी मार्ग का भाग था तथा जिससें पीकिंग को चावल पहुँचाने में विशेष सहायता मिलती थी। उसने एक वेधशाला भी बनवाई तथा पंचांग में भी संशोधन कराया। उसके समय में ज्यामिति, बीजगणित, त्रिकोणमिति, भूगोल तथा इतिहास के अध्ययन की प्रेरणा मिली। उसके बनवाए शब्दकोश अब भी व्यवहार में लाए जाते हैं। खेती, बागवानी, रेशम के कीड़े पालने तथा पशुपालन पर उसने ग्रंथ लिखवाए। साहित्य की उसके समय में उन्नति हुई तथा उपन्यासलेखन एवं नाट्यकला को भी एक नया मोड़ मिला।

उसके समय में प्रति वर्ष राज-कर्मचारी चीन के एक कोने से दूसरे कोने तक जनता की आर्थिक स्थिति तथा फसलों का निरीक्षण करते थे। गरीबों के लिए चावल तथा ज्वार के अतिरिक्त कपड़े तथा आश्रय का भी प्रबंध करते थे। वृद्ध, अनाथ, रोगी तथा अंगहीनों को राज्य की और से सहायता दी जाती थी। कुब्ले ने गृहहीन बालकों को एकत्र कर उनकी शिक्षा का प्रबंध कराया; साम्राज्य भर में अस्पताल तथा अनाथालय खुलवाए।

चीन के जहाज समुद्र में दूर दूर-श्रीलंका, अरब तथा अबीसीनिया--तक जाया करते। स्थल मार्ग से मुस्लिम व्यापारी फारस तथा अरब से व्यापारिक सामग्री, रूस से रोएँदार कपड़े इत्यादि लाते तथा लौटते समय अपने साथ रेशम, बहुमूल्य रत्न तथा मसाले ले जाते। चीन व्यापारिक केंद्र बन गया। कुब्ले के राज्यकाल में तो इसका अद्भुत प्रसार हुआ।

संसार के इतिहास में पहला अवसर था जब पश्चिमी एशिया तथा चीन-रुस तथा तिब्बत को पृथक्‌ करने के लिए न तो मरुस्थल थे और न परस्पर विरोधी दल अथवा युद्ध के लिए तत्पर सेनाएँ हीं थीं। डकैती और लूटमार का कहीं नाम न था और मंगोल सैनिक यातायात की रक्षा करते थे।

धार्मिक विषयों में लोगों को स्वतंत्रता थी। ईसाई, बौद्ध अथवा मुस्लिम कोई भी मत हो, सबके साथ वह पक्षपातरहित हो मित्रभाव रखता था। ईसाई पादरियों के उपदेशों को वह उतनी ही तन्मयता से सुनता था जितनी बौद्ध पुरोहितों अथवा मुस्लिक मुल्लाओं के उपदेश। यदि कभी उसने किसी पंथ पर विशेष कृपा की तो केवल इसीलिए कि उससे नीति-निर्धारण में सहायता मिलती थी।

पक्षपातरहित विश्वनागरिक होते हुए वह व्यावहारिकता को अधिक महत्व देता था। कुब्ले के सेवकों में एशिया की सब जातियों के अतिरिक्त वेनिस नगर (इटली) के भी तीन व्यक्ति थे।

34 वर्ष राज्य करने के बाद कुब्ले की मृत्यु हुई और उसी के इच्छानुसार उसे चीन में न दफनाकर दूर मंगोलिया में ओनन तथा केरुलेन के उद्गम के निकट नुरकान काल्दुन पर्वत पर, जहाँ उसके पितामह चंगेज खाँ तथा उसके पिता तुली एवं माँ सियूरकुक-तेनी की समाधियाँ थीं, दफनाया गया।[१]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं.- माइकेल प्रॉडीन : दि मंगोल एंपायर, लंदन, 1941; राबर्ट के. डगलस : चाइना, लंदन, 1920 जेरमियाँ कुर्टिन : द मंगोल्स, लंदन, 1908 ; एम. एच. होवार्थ : हिस्ट्री ऑव द मंगोल्स, लंदन 880-1888 ; सर एच. यूल : मार्को पोलो, 1875।