केशवदास
केशवदास
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 124 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलवंत सिंह |
केशवदास संस्कृत काव्यशास्त्र का सम्यक् परिचय करानेवाले हिंदी के प्राचीन आचार्य और कवि। जन्म (अनुमानत:) 1612 वि. और मृत्यु (अनुमानत:) 1674 वि.। इनका जन्म सनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीराम था जो ओड़छा नरेश मधुकरशाह के विशेष स्नेहभाजन थे। मधुकरशाह के पुत्र महाराज इंद्रजीत सिंह इनके मुख्य आश्रयदाता थे। वे केशव को अपना गुरु मानते थे। रसिकप्रिया के अनुसार केशव ओड़छा राज्यातर्गत तुंगारराय के निकट बेतवा नदी के किनारे स्थित ओड़छा नगर में रहते थे।
केशवदास रचित प्रामाणिक ग्रंथा नौ हैं : रसिकप्रिया, कविप्रिया, नखशिख, छंदमाला, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेव चरित, रतनबावनी, विज्ञानगीता और जहाँगीर जसचंद्रिका। रसिकप्रिया केशव की प्रौढ़ रचना है जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें रस, वृत्ति और काव्यदोषों के लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। इसके मुख्य आधारग्रंथ हैं-नाट्यशास्त्र, कामसूत्र और रुद्रभट्ट का श्रृंगारतिलक। कविप्रिया काव्यशिक्षा संबंधी ग्रंथ है जो इंद्रजीतसिंह की रक्षिता और केशव की शिष्या प्रवीणराय के लिये प्रस्तुत किया गया था। यह कविकल्पलतावृत्ति और काव्यादर्श पर आधारित है। रामचंद्रिका उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध महाकाव्य है जिसकी रचना में प्रसन्नराघव, हनुमन्नाटक, कादंबरी आदि कई ग्रंथो से सामगी ग्रहण की गई हैं। रतनबावनी में मधुकरशाह के पुत्र रतनसेन् वीरसिंह चरित में इंद्रजीतसिंह के अनुज वीरसिंह तथा जहाँगीर जसचंद्रिका का यशोगान किया गया है। विज्ञानगीता में प्रबोधचंद्रोदय के आधार पर रचित अन्यापदेशिक काव्य है।
केशव अलंकार संप्रदायवादी आचार्य कवि थे। इसलिये स्वाभाविक था कि वे भामह, उभ्दट और दंडी आदि अलंकार संप्रदाय के आचार्यों का अनुसरण करते। इन्होंने अलंकारों के दो भेद माने हैं, साधारण और विशिष्ट। साधारण के अंतर्गत वर्णन, वर्ण्य, भूमिश्री-वर्णन और राज्यश्री-वर्णन आते है जो काव्यकल्पलतावृत्ति और अलंकारशेखर पर आधारित हैं। इस तरह वे अलंकार्य और अलंकार मे भेद नहीं मानते। अलंकारों के प्रति विशेष रुचि होने के कारणा काव्यपक्ष दब गया है और सामान्यत: ये सहृदय कवि नहीं माने जाते। अपनी क्लिष्टता के कारण ये कठिन काव्य के प्रेत कहे गए हैं। विशिष्ट प्रबंधकाव्य रामचंद्रिका प्रबधनिर्वाह, मार्मिक स्थलों की पहचान, प्रकृतिवर्णन आदि की दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं है। परंपरा पालन तथा अधिकाधिक अलंकारों को समाविष्ट करने के कारण वर्णनों की भरमार है। चहल पहल, नगरशोभा, साजसज्जा आदि के वर्णन में इनका मन अधिक रमा है। संवादों की योजना में, नाटकीय तत्वों के संनिवेश के कारण, इन्हें विशेष सफलता मिली है। प्रबंधों की अपेक्षा मुक्तकों में इनकी सरलता अधिक स्थलों पर व्यक्त हुई है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-आचार्य रामचंद्र शुक्ल :हिंदी साहित्य का इतिहास, काशी नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी; हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, षष्ठ भाग, डा. नगेंद्र द्वारा संपादित, ना. प्र. सभा, वाराणसी।