सैयद इंशा अल्लाह ख़ाँ

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लेख सूचना
सैयद इंशा अल्लाह ख़ाँ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 503
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सैयद एहतेशाम हुसेन

इंशा अल्लाह खाँ, सैयद (1756-1817), इंशा के पिता हकीम माशा अल्लाह दिल्ली से मुर्शिदाबाद चले गए थे। वहीं इंशा का जन्म हुआ। अभी वह बच्चे ही थे कि बाप के संग फैजाबाद आ गए। एक विद्वान्‌ कुल में होने को कारण शिक्षा अच्छी प्राप्त की। मुगल बादशाह शाहआलम (1756-1806) के युग में इंशा दिल्ली चले आए और अपने ज्ञान, बुद्धि की तीव्रता तथा काव्यरचना के सहारे राजदरबार में आदर के पात्र बन गए। उस समय दिल्ली में कविसम्मेलनों की बड़ी चर्चा थी। बादशाह से लेकर जनसाधारण तक उनमें सम्मिलित होते थे। इंशा भी उनमें जाते और अपने चंचल स्वभाव के कारण दूसरे कवियों पर चोटें करते। इसके फलस्वरूप वहाँ के कई प्रमुख कवियों से उनकी अनबन हो गई। दिल्ली की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। शाहआलम अंधे किए जा चुके थे। ईस्ट इंडिया कंपनी का दबाव बढ़ रहा था। अवध में नई राशनी देख पड़ती थी, इंशा भी 1791 ई. में लखनऊ चले आए जहाँ कविता का एक नया केंद्र बन रहा था।

लखनऊ में शाहआलम के एक पुत्र सुलमाँ शिकोह ने अपना एक राजदरबार अलग बना रखा था। वहाँ कवियों की बड़ी पूछ थी, इसलिए इंशा भी वहाँ पहुँचे। वे कई भाषाएँ जानते थे और अपनी हास्यपूर्ण बातों से सबको मुग्ध कर लेते थे। कविता राजदरबार के वातावरण में लड़ाई-झगड़े का विषय बन गई थी। उस समय लखनऊ में बहुत से कवि एकत्र हो गए थे जो कविसम्मेलनों में एक दूसरे को नीचा दिखाकर दरबार में उच्च स्थान प्राप्त करने की चेष्टा करते थे। उन कवियों में 'जुरअत' और 'मुसहफी' भी थे जिनके बहुत से चेले थे। इंशा इनसे पीछे कैसे रहते। इनके आने से शेर-ओ-शायरी की रंग चमक उठा, मुकाबले और चोटें होने लगीं। हास्य बढ़कर निंदा और व्यंग में परिवर्तित हो गया। इंशा भी इनमें पूर्णतया डूब गए। लखनऊ के जीवन में भोग और विलास की जो भावनाएँ उत्पन्न हुईं थी उनका प्रभाव उस समय की सारी कविताओं पर देखा जा सकता है।

जब इंशा की ख्याति बहुत बढ़ी तो उन्हें नवाब सआदत अली खाँ ने अपने यहाँ बुला लिया। पहले तो उनका बहुत आदर सम्मान हुआ, परंतु बाद में दरबारी जीवन की बाधाओं ने उन्हें परास्त कर दिया। नवाब उनसे और वह नवाब से घबराने लगे। उसी बीच इंशा का जवान पुत्र मर गया। ऐसी बातों ने एकत्र होकर उनको पागल बना दिया। वह जीवन में जितना हँसते हँसाते थे, अंतिम अवस्था में उतने ही दु:खी रहे।

इंशा ने उर्दू फारसी गद्य और पद्य में बहुत सी रचनाएँ छोड़ी हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रसिद्ध हैं और प्रकाशित हो चुकी हैं: 'दरियाए लताफ़त'; फारसी भाषा में भाषाविज्ञान और उर्दू व्याकरण; अलंकार और काव्यशास्त्र पर एक महत्वपूर्ण रचना जिसका उर्दू रूपांतर प्रकाशित हो चुका है; 'रानी केतकी और कँुवर उदयभान की कहानी' (शुद्ध हिंदी में गद्य रचना); 'सिलके गौहर' एक कथा गद्य में है जिसमें उर्दू फारसी के उन अक्षरों का प्रयोग नहीं किया गया है जिनपर बिंदी होती है। ऐसी कई रचनाएँ पद्य में भी हैं। 'लतायफुस्सआदत' में वे हास्यजनक चुटकुले हैं जो इंशा ने सआदतअली खाँ के दरबार में कहे। 'कुलयाते इंशा' इंशा की फारसी और उर्दू कविताओं का संग्रह है।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-फ़रहतुल्लाह बेग: इंशा; मिर्ज़ा मुहम्मद असकरी: कलामे इंशा; आमिन खातून: तहक़ीक़ी नवादिर; आमिना खातून; लतायफुस्सआदत मुहम्मद हुसेन 'आज़ाद': आबेहयात; कुदरतुल्लाह कासिम: मज़बूवे नस्र।