क्रिस्टोफर कोलंबस
क्रिस्टोफर कोलंबस
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 172 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | पद्मा उपाध्याय |
क्रिस्टोफर कोलंबस (1451-1506 ई.)। प्रख्यात नाविक और भू-अन्वेषक। इटली के जेनोआ नगर में लगभग 1451 ई. में जन्म हुआ। इनके पिता बुनकर थे किंतु किशोरावस्था में ही इन्हें समुद्र ने आकृष्ट किया तथा भूमध्यसागर के पूर्वी हिस्सों में अनेक बार नाविक के रूप में उन्होंने यात्रा की। उन्हें एक यात्रा दूसरी यात्रा के लिये प्रोत्साहित करती रही। समुद्र का आकर्षण उन्हें सदा पुकारता रहा ओर इस अनवरत पुकार ने कोलंबस में नई भूमि, नए देश की खोज की चाह पैदा की। कुछ दिनों के पश्चात् उन्होंने इंग्लैंड तथा उत्तरी समुद्र की यात्रा की। इस यात्रा से लौटने के पश्चात् वह लिस्बन में बस गए और वहीं एक संभ्रांत परिवार की महिला से विवाह किया। पत्नी का पिता सेना में कप्तान था।
उन दिनों मानव पृथ्वी के भेदभरे अनदेखे भाग का पता लगाने की चेष्टा करने और उसके विभिन्न भागों में पहँुचने का स्वप्न देखने लगा था। अत: कोलंबस का जिज्ञासु स्वभाव एवं उत्साही हृदय भी नए देश, नई धरती की खोज के लिये उतावला हो उठा। अतलांतिक स्थित देशों में अद्भूत वस्तुओं का पाया जाना उसकी उत्सुकता को बढ़ाता रहा। सुदूर पूर्व की कथाएँ उसने सुनीं। मार्को पोलो ने चीन के राजा की अपार धनराशि की कथा कही थी तथा जापान के उस प्राचीन द्वीप का दिग्दर्शन कराया था जहाँ घरों की छतें सुवर्ण से मढ़ी होती थी। एशिया और अफ्रीका के महाद्वीप अपनी रहस्यमयी कथाओं से कोलंबस को आकृष्ट करते रहे। नई धरती की खोज की कल्पना उसके मस्तिष्क में घर करने लगी और उसने निश्चय किया कि वह अतलांतिक महासागर में पच्छिम की और तब तक चलता जाएगा जब तक वह भारत न पहँुच जाए मार्ग में पड़नेवाले द्वीपों की खोज करता, विशेषकर आंतिलिया को देखता वह आगे बढ़ेगा और इन नए देशों को वह कैथोलिक धर्म से अनुप्राणित करेगा। यह पूर्व तथा पश्चिम का एक सम्मेलन होगा। जो शक्ति और धन वह अर्जित करेगा उससे एक सच्चे ईसाई का स्वप्न पूर्ण होगा। और वह धर्म का रक्षक बनेगा। परंतु ऐसी किसी यात्रा के लिये किसी ऐसे धनी राजा के सहयोग की अपेक्षा थी जो 15वीं शताब्दी की राजनीति के अनिश्चित उतार चढ़ाव में एक अनजाने उत्साही की कल्पना पर आयेजित यात्रा को आर्थिक सहायता दे सके। इसके अतिरिक्त उसकी अपनी शर्ते भी विचित्र थीं। वह ऐडमिरल का पद तथा जिन देशों को वह खोजे उनका वह प्रांतपति भी होना चाहता था इनके अतिरिक्त यात्रा में प्राप्त धन तथा खनिज पदार्थो का दसवाँ भाग भी उसे चाहिए था।
कोलंबस ने सर्वप्रथम पुर्तगाल के शासक जान द्वितीय से संपर्क स्थापित किया। जान ने उसकी यात्रा की योजना में दिलचस्पी ली परंतु कोई परिणाम नहीं निकाला। वह निरंतर प्रयास करता रहा तथा कुछ मित्रों की सहायता से स्पेन के सम्मिलित शासक अरागान के फार्दिनांद (Ferdinand) तथा कास्तिल की इजाबेला के राजदरबार में उपस्थित होने में वह सफल हुआ; परंतु वे लोग मूरों से संघर्ष में व्यस्त थे, फिर अतलांतिक में केवन उत्साह एवं कल्पना के आधार पर आयोजित यात्रा में व्यय करने के लिये उनके पास पैसा भी न था। इसके अतिरिक्त कोलंबस की योजना राजा के जिन सलाहकारों के सम्मुख रखी गई उनके विचार से यह योजना सर्वथा असंभव थी। जब वहाँ वह असफल रहा तो उसने अपने भाई को इंग्लैंड के राजा हेनरी सप्तम को प्रभावित करने के लिये भेजा और स्वयं फ्रांस गया। अंतिम क्षणों में रानी इजाबेला ने कोलंबस की योजना की सार्थकता को पहचाना। नए विजित देशों के हजारों वासियों में ईसाई धर्म के प्रचार के अवसर को वह खोना नहीं चाहती थी। वह कोलंबस से मिलने तथा उसकी योजना सुनने को तैयार हो गई। 1492 में जब मूर युद्ध समाप्त हुआ तब अप्रैल मास में कोलंबस तथा स्पेन के शासकों में इस योजना के कार्यान्वित करने के लिये एक अनुबंध हुआ।
सहायता तो मिली परंतु इस अभियान के हेतु साधन जुटाना सहज न था। पालोस नगर को कोलंबस को दो जहाज प्रदान करने का राजकीय आदेश हुआ, परंतु जहाजों के लिये नाविक मिलने कठिन हो गए। कोई कोलंबस की अनिश्चित यात्रा में अपने जीवन की बाजी लगाने के लिये तैयार न था। दंडित अपराधी भी, जिनको राज्य मुआवजा देने को तैयार था, यात्रा के लिये हृदय से तैयार न थे। तथापि वह पिंजोन बंधुओं की सहायता से नाविकों को जुटाने में सफल हुआ। अगस्त, सन् 1492 में ८7 नाविकों को लेकर जिनमें कुछ तो अपराधी और अभ्यस्त नाविक थे, उसने पालेस से अपनी यात्रा आरंभ किया। उसके साथ तीन जहाज थे, सांता मारिया जिसका कप्तान वह स्वयं था, तथा पिता और नीना जिनके कप्तान पिंजान बंधु थे।
यात्रा आरंभ करने के कुछ ही दिनों पश्चात् तीनों जहाजों के नाविकों में असंतोष प्रकट होने लगा जो दिन दिन बढ़ता गया। अनजाना मार्ग एवं अनिश्चित परिणाम का भय उनमें घर कर गया और जब दिन तथा सप्ताह धरती के दर्शन बिना बीतने लगे तब नाविकों के विद्रोह करने की आशंका आ खड़ी हुई। नाविक उसे मार डालने तक को तैयार हो गए। कोलंबस ने इस स्थिति को जैसे तैसे सँभाला। अंततोगत्वा जब भूमि दिखाई पड़ी तब नाविक धरती धरती कह चिल्ला उठे। 12 अक्तूबर को तट पर घुटने टेक कोलंबस ने धरती को चूमा और उस द्वीप पर स्पेन का झंडा गाड़ दिया। उसने द्वीप का नाम सान साल्वेदोर (पवित्र उद्धारक) रखा। इस यात्रा में इस द्वीप के वासियों के प्रति वह बहुत आकृष्ट हुआ। उसके कथनानुसार वहाँ के निवासी बहुत सरल एवं शांतिप्रिय थे। जिन लोगों के संपर्क में वह आया उनसे सदा उसने सद्व्यवहार किया, यद्यपि उसके कुछ विचार भ्रांतिपूर्ण प्रमाणित हुए। फिर भी दोनों ओर के संबंध मित्रतापूर्ण बने रहे। कोलंबस के इस आदेश से कि वहाँ के निवासियों के प्रति दया का व्यवहार किया जाए, उसके सहयोगियों ने अपने पर नियंत्रण रखा। किसी तरह की भेंट आदि लेना निषिद्ध था और जब कुछ भी लिया जाता, बदले में उन्हें भाँति भाँति की भेंटें दी जातीं।
इस तरह कोलंबस अपनी यात्रा में शांतिपूर्वक अग्रसर होता रहा। उसने क्यूबा की खोज की। उसने समझा कि उसने एशिया महाद्वीप की खोज कर ली है या जापान की महाभूमि के दर्शन किए हैं, जहाँ उसे अपरिमित धनराशि की प्राप्ति होगी। कोलंबस इसके पश्चात् अपनी कल्पना के उस देश की खोज निरंतर करता रहा जहाँ बहुमूल्य धातु (सुवर्ण) इतनी अधिक मात्रा में होगी कि उसे केवल अपने जहाजों में भरना और स्वदेश पहुँचाना होगा। परंतु उसका यह स्वप्न पूरा न हो सका। यद्यपि स्थानीय निवासियों की भाषा वह नहीं समझ सका तथापि उसे यह सदा भासित होता रहा कि वे उसे आगे किसी धनी प्रदेश की ओर प्रेरित करते हैं, जहाँ की सड़कें भी सुनहरे द्रव्य से मढ़ी होंगी। उसे अपने जीवन के अंत तक यह लगता रहा कि यदि वह कुछ दूर और भीतर की ओर बढ़ा होता तो उसकी योजना पूरी हो गई होती। इस प्रथम अभियान की अंतिम खोज हिस्पानियोला (हाइती) था। यहाँ सांता मारिया पृथ्वी में धँस गया जिससे उसे छोड़ देना पड़ा । इस द्वीप में उसने 42 यूरापियनों का एक उपनगर बसाया तथा द्वीप के छह निवासियों को ईसाई धर्म की दीक्षा दी तथा उन्हें अपनी यात्रा के प्रमाण के रूप में अपने साथ लेकर वह स्पेन लौटा।
स्पेन में राजा तथा रानी ने उसका भव्य स्वागत किया । वह अब देश का बहुत महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली व्यक्ति था। अपने साथ लाए अमरीका निवासी, तोते, अद्भुत पशुपक्षी, अनजाने फल, जहाँ भी वह ले गया, जनता में एक आश्चर्य उत्पन्न करते रहे। एक समकालीन पत्र द्वारा यह ज्ञात होता है कि कोलंबस बहुमुल्य वस्तुएँ तथा सुवर्ण अपने साथ लेकर लौटा था। पोप ने इन नए प्राप्त द्वीपों पर स्पेन के अधिकार को मान्यता दी।
स्पेन के शासकों ने एक द्वितीय अभियान, प्रथम से अधिक विशाल, आयोजित किया। 25 सितंबर, 1493 को यह यात्रा आरंभ हुई परंतु कोलंबस की महत्ता का अंत उसकी प्रथम यात्रा के प्रत्यावर्तन के साथ ही आरंभ हो गया। हिस्पीनियोला पहुँच कर उसने देखा कि उसके द्वारा स्थापित उपनगर नष्ट हो चुका है तथा उसके पीछे छोड़े सभी यूरोपीय मारे जा चुके है। कोलंबस ने जो नया उपनगर इज़ाबेला द्वीप पर बसाया था वह भी उसके जीवन के लिये अभिशाप बना।
जब सुवर्ण देश की खोज में कोलंबस असफल हुआ तो 1494 ई0 में उसने दासों के व्यापार की नींव डाली। यह उसके पतन का प्रारंभ था। यूरोप में दासों का व्यापार पहले से ही प्रचलित था तथा कभी बुरा नहीं माना गया। कोलंबस की दृष्टि में दासों के प्रति निम्न व्यवहार का प्रतिकार उन्हें ईसाई मत में दीक्षित करके किया जा सकता है। और उसका यह दृष्टिकोण उस युग की इस विचारधारा का परिणाम था कि मनुष्य की आत्मा का मूल्य उसकी स्वतंत्रता से अधिक है । कोलंबस स्वयं बहुत दयावान नहीं था। उसकी नीयत से भी कभी लोग ऊब जाते थे। जहाजों में भर कर वह स्त्रियों और बच्चों को स्वदेश भेजता, जहाँ की जलवायु के वे अभ्यस्त नहीं थे। सैकड़ों की संख्या में वे मर गए। शासकों से वह कहता रहा कि ये दास युद्ध के कैदी हैं। बहुतों को दासों का व्यापार भाता था, किंतु रानी इजाबेला को यह नहीं भाया और स्पेन के राजदरबार में कोलंबस का मान घटने लगा।
कोलंबस क्यूबा के तटीय प्रदेशों की खोज करता फिरा। उसने दोमिनिका का पता लगाया, पोर्तोरिको तथा अन्य द्वीप भी खोजे। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता गया ओर वह अचेतावस्था में इजाबेला द्वीप के उपनगर में पहुँचाया गया। जब वह स्वस्थ हुआ तब उसने पाया कि उसके कार्यो की जाँच करने के लिये इजाबेला में एक कमिश्नर भेजा गया है। अपनी संदेहजनक स्थिति देखकर वह स्वदेश लौटा। जून, सन् 1496 में वह कादिज पहुँचा। इस बार राजा फार्दिनांद तथा रानी इज़ाबेला द्वारा किए गए स्वागत से वह आश्चर्यचकित रह गया। उसे ड्यूक की पदवी देने का प्रस्ताव रखा गया। साथ ही तीसरी यात्रा के निमित्त उसके लिये साधन भी एकत्रित किए गए। परंतु कोलंबस के भाग्य का नक्षत्र अब अस्त हो रहा था। उपनिवेशों की स्थिति आनियंत्रित होती जा रही थी। स्थानीय निवासियों के प्रति बर्बरता का व्यवहार हो रहा था। क्रांति तथा षड्यंत्र का बोलबाला था। समय के साथ साथ कोलंबस स्वयं क्रोधी तथा निर्दय होता जा रहा था। हिस्पानियोला क्रांति तथा बर्बरता का केंद्र हो गया था। रानी इजाबेला ने इस अराजकता की कहानी सुनी और सन् 1500 में कोलंबस, जब वह त्रिनिदाद तथा दक्षिणी अमरीका का पता लगा चुका था। बंदी की स्थिति में स्वदेश लौटा । एक नया गवर्नर हिस्पानियोला में व्यवस्था स्थापित करने के लिये नियुक्त किया गया।
एक अवसर उसे फिर मिला। उसे चौथी यात्रा का आदेश मिला परंतु इस शर्त पर कि वह हिस्पानियोला कभी नहीं जाएगा। कोलंबस का उत्साह अपरिमित था। उसका हृदय सदा सुदूर पश्चिम में बढ़ने के लिये तिलमिलाता रहा। वह पच्छिमी द्वीपसमूहों (वेस्ट इंडीज़) की ओर गया और जामाइका में कुछ दिनों ठहरा। उसके नाविकों की संख्या बीमारी के कारण घटती गई, स्थानीय निवासियों के साथ संघर्ष बढ़ता गया ओर असंतोष ने घर कर लिया। और जब दो वर्ष के पश्चात् वह स्पेन लौटा तब स्वास्थ्य ओर सम्मान सब कुछ वह खो चुका था।
कोलंबस के अंतिम दो वर्ष चिंता और निराशा में व्यतीत हुए परंतु वह कभी निर्धनता का शिकार नहीं हुआ। वालादोलिद की सूनी सड़क पर एक साधारण घर में सन् 1506 में उसकी मृत्यु हुई।
साधारण परिवार में जन्म लेकर कोलंबस ने ऐश्वर्य तथा संमान प्राप्त किया। स्पेन को उसने उपनिवेश तथा मान प्रदान किए। उसकी खोजों ने उसे नए मार्गान्वेषी उत्साही नाविकों में अग्रणी बना दिया। उसने नई दुनिया की खोज की तथा पुरानी दुनिया को उसका ज्ञान कराया। प्रथम अभियान में उसने सांता मारिया, द ला कंसेप्शन, सान साल्वेदोर, इजाबेला, लांग आईलैंड, क्यूबा तथा हाइती ढूँढ़ा, द्वितीय में दोमिनिका, पोर्तोरिको, गादा लूप, आंतिगुआ, सांता क्रूज़ तथा वर्जिन द्वीप, तृतीय में वह त्रिनीनाद तथा दक्षिणी अमरीका के किनारे जा पहुंचा। उसका यश सुरक्षित है तथा पश्चिमी द्वीपसमूह उसके स्मृतिचिन्ह हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ