पूर्वक्रय क्रय प्राथमिकता

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लेख सूचना
पूर्वक्रय क्रय प्राथमिकता
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 198
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक ब्‌जकिशोर शर्मा

क्रय प्राथमिकता, पूर्वक्रय (प्री-एम्यूशन) मुस्लिम विधि के अनुसार विशिष्ट अचल संपत्ति के स्वामी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अचल संपत्ति का विक्रय होने पर हस्तांतरी के स्थान पर अनिवार्यत: प्रतिष्ठित हो सके। इसे पूर्वक्रय का अधिकार या हकशफा कहते हैं। अधिकारी को शफी अथवा पूर्वक्रयाधिकारी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति के लिए तीन बातें आवश्यक हैं : 1. शफी अचल संपत्ति का स्वामी हो। 2. क्रयकर्ता एवं शफी में विशिष्ट संबंध हो। 3. संपत्ति का क्रय हो। संपत्ति शफी की न हो।

पूर्वक्रय का अधिकार पूर्णत: इस्लाम के शास्त्रीय वचनों पर आधारित है। इसके पीछे उद्देश्य यह है कि सहभोगी या पड़ोसी के मध्य कोई अन्य जन न आ जाए जिससे संपत्ति के शांतिमय उपयोग में बाधा हो। भारत में इस अधिकार ने हिंदुओं में भी, विशेषतया पंजाब में, रूढ़िजन्य विधि का रूप ले लिया है। हिंदू धर्मशास्त्रों में इसका उल्लेख नहीं है। तमिलनाडु के उच्च न्यायालय ने इस अधिकार को अवैधानिक घोषित कर दिया है, अतएव वहाँ यह अमान्य है।

यह अधिकार तीन प्रकार के व्यक्तियों को प्राप्त होता है :

1-शफी-ए-शरीक, या संपत्ति का सहभोगी। 2-शफी-ए-खलीत उनमुक्ति का सहभोगी। 3-शफी-ए-जार, या पड़ोसी। ये तीनों वग्र इसी अनुक्रम में अधिमान प्राप्त करते हैं। प्रथम वर्ग के व्यक्ति दूसरे वर्ग को तथा दूसरे वर्ग के तीसरे वर्ग को स्थाच्युत कर देते हैं। यथा-----

राम और श्याम एक अचल संपत्ति के संयुक्त स्वामी हें। यदि राम अपने भाग को शंकर के हाथ बेचता है तो श्याम को शफी-ए-शरीक होने के नाते पूर्वक्रय का अधिकार है। किंतु ये तीन माँगे प्रस्तुत करना अनिवार्य है : 1-प्रथम माँग (तलब-ए-मुवातव)---पूर्वक्रयाधिकारी को चाहिए कि विक्रय का समाचार ज्ञात होते ही तुरंत अपने अधिकार का दावा करे। दावे की न तो कोई विशेष पद्धति है और न साक्षी की उपस्थिति ही आवश्यक है। किंतु यदि दावा करने में तनिक भी विलंब हो तो वह अधिकार से वंचित माना जाएगा। 2-पूर्वाधिकारी को शीघ्रातिशीघ्र द्वितीय माँ (तलब-ए-इशहाद) भी करनी चाहिए। इस माँग में प्रथम माँग का उल्लेख होना चाहिए, दो साक्षी होने चाहिए एवं विक्रेता या क्रेता की उपस्थिति में की जानी चाहिए। विशेष स्थिति में प्रतिनिधि भी यह कार्य कर सकता है। 3-तृतीय माँग (तलब-ए-तमलीक) वस्तुत: कानूनी दावा है। यह क्रय की तिथि से या पंजीकरण की तिथि से, जैसा भी हो, एक वर्ष की अवधि के भीतर प्रस्तुत की जानी चाहिए। यह अधिकार अभित्याग पूर्वक्रयाधिकारी की मृत्यु या निर्मुक्ति द्वारा नष्ट हो जाता है। यह दावा प्रवर्तित होने पर पूर्वक्रयाधिकारी प्रत्येक प्रकार से क्रेता के स्थान में आ जाता है।

प्राचीन पंडितों में इस बात पर मतभेद है कि इस अधिकार को किसी युक्ति से रोका जा सकता है अथवा नहीं। इमाम मुहम्मद ने ऐसे ढंग को जघन्य माना है और अबू यूसुफ़ ने उचित। यह विषय संदिग्ध है कि आज भारत में इन युक्तियों का प्रयोग हो सकता है या नहीं। यथा-यदि विक्रेता अपने पड़ोसी से मिली हुई भूमि की एक ही पट्टी छोड़कर शेष विक्रय कर दें तो पड़ोसी को पूर्वक्रय का अधिकार न होगा क्योंकि उसने वास्तविक सान्निध्यवाली भूमि नहीं बेची है। न्यायाधिपति महमूद की उक्तियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत के न्यायालय इन युक्तियों को न्यायसंगत नहीं मानेंगे। [१]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-मोहम्मदुल्लाह इब्न एस. जंग : दि मुस्लिम लॉ ऑव प्रिएम्यूशन; तय्यबजी : मोहम्मडन लॉ; के. पी. सक्सेना: मुस्लिम लॉ; ए. ए. ए. फैज़ी : आउटलाइंस ऑव मोहम्मडन लॉ; विल्सन: ऐंग्लो मुहम्मडन लॉ।