क्रीमिया का युद्ध

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १०:५६, ८ फ़रवरी २०१७ का अवतरण ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
क्रीमिया का युद्ध
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 210
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

क्रीमिया का युद्ध रूस के साथ इंग्लैंड और फ्रांस का युद्ध जो जुलाई, 1853 ई. से सितंबर, 1855 ई. तक चलता रहा। यह युद्ध कदाचित्‌ अकारण लड़ा गया था फिर भी यूरोपीय इतिहास में इसका विशेष महत्व आँका जाता है। उन दिनों यूरोपीय देशों में लोगों की यह धारणा हो गई थी कि रूस के पास इतने अधिक शस्त्रास्त्र हैं कि वह अजेय है। उससे लोग आतंकित थे। कुस्तंतुनिया की ओर राज्यविस्तार करने की रूस की नीति पीतर महान्‌ के समय से ही चली आ रही थी। अपनी इस राज्यविस्तार की आकांक्षापूर्ति के लिये वह कोई न कोई बहाना ढूँढ़ता रहता था।

इस युद्ध का सूत्रपात एक छोटे से धार्मिक विवाद को लेकर हुआ। उन दिनों फ़िलिस्तीन तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत था। 1535 ई. में तुर्की के सुल्तान ने रोमन ईसाइयों के तीर्थस्थानों की देखभाल फ्रांस के संरक्षण में फ्रेंच कॉथलिक पादरियों को सौंपा था। इसी प्रकार तुर्की स्थित यूनानी -ईसाई संप्रदाय के धार्मिक स्थान रूस के जार के संरक्षण में दिए गए थे। किंतु फ्रांस की प्रख्यात राजक्रांति के समय फ्रांस अपने उत्तरदायित्व की ओर समुचित ध्यान न दे सका। धीरे धीरे लैटिन धर्मस्थानों पर यूनानी-ईसाई संप्रदाय के साधुओं का अधिकार हो गया। 1850 ई. में फ्रांसनरेश नेपोलियन (तृतीय) का ध्यान लैटिन चर्च की ओर गया; उसने उनके प्रबंध को फ्रांस के संरक्षण में दे देने के लिये तुर्की को लिखा। 1852 ई. में उसने अपनी इस माँग को दुहराया। कुछ हीलाहवाली करने के बाद तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस की इस माँग को स्वीकार कर लिया। रूस के लिये कोई कारण न था कि वह तुर्की के इस कार्य पर आपत्ति करता; किंतु उसने इसे तुर्की को हड़प लेने का एक अच्छा अवसर समझा। यूनानी-ईसाई संप्रदाय का पक्ष लेकर जार ने सुल्तान को लैटिन धार्मिक स्थलों का प्रबंध उन्हें लौटा देने को लिखा। इससे इंग्लैंड आशंकित हो उठा। उसे डर लगा कि कुस्तुंतुनिया पर रूस का अधिकार हो जाने पर स्थल मार्ग से भारत के लिये स्थायी खतरा उत्पन्न हो जाएगा और यह ऐसा खतरा होगा जिसका किसी प्रकार भी सामना करना उसके लिये संभव न होगा। वह रूस के विरूद्ध तुर्की की सहायता के लिये उठ खड़ा हुआ।

फ्रांस के लिये तो रुष्ट होने का स्पष्ट कारण था ही। रूस उसके तीर्थस्थलों की देखभाल के अधिकार में हस्तक्षेप कर रहा है। किंतु इससे बड़ा कारण यह था कि जार निकोलस (प्रथम) ने फ्रांस के नए सम्राट् को ‘भाई’ संबोधित न कर ‘मित्र’ संबोधित किया था। इसलिये रूस के यूनानी-ईसाई संप्रदाय का पक्षधर बनते देख उसे अपने राजवंश पर खतरा आता दिखाई पड़ा। आस्ट्रिया को भी बालकन की ओर रूसी बढ़ाव से घबराहट हुई। यद्यपि 1849 ई. में आस्ट्रियानरेश को अपना पैतृक सिंहासन रूसी सैनिक सहायता से प्राप्त हुआ था तथापि इस अवसर पर रूस की कृतज्ञता मानना और चुप बैठे रहना उचित नहीं जान पड़ा। उसका झुकाव फ्रांस और इंग्लैंड की ओर होने लगा। उसने ब्रिटिश राजदूत के इशारे पर रूस की चुनौती को ठुकरा दिया। इसका जो परिणाम होना था हुआ।

जुलाई, 1853 में रूस की सेना ने कूच बोल दिया और दान्यूब नवी के उत्तरवर्ती तुर्की के भूभाग-मोल्डेविया और बालेशिया के प्रांतों पर आधिकार कर लिया। तत्काल इंग्लैंड और फ्रांस का संयुक्त नौसेनिक बेड़ा तंर्की की सहायता के लिये बास्फोरस पहुँचा; किंतु अंगरेजी और फ्रांसीसी युद्धपोतों के देखते देखते साइनोप के निकट रूसी नौसेना ने तुर्की के बेड़े को नष्ट कर दिया। तब जनवरी,1854 ई. के आंरभ में इंग्लैंड और फ्रांस का संयुक्त बेड़ा कालासागर में घुसा और दोनों देशों ने शीघ्र ही रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। उन्होंने अपनी रक्षात्मक युद्ध करने की योजना बनाई। कुस्तुंतुनिया की रक्षा के लिये उन्होंने गैलीपोली में किलेबंदी करने का निश्चय किया। किंतु इसके पूर्व कि आंग्ल-फ्रेंच सेनाएँ कालासागर के पश्चिमी तट पर वर्ना में एकत्र हों, आस्ट्रिया के अमैत्रीपूर्ण रुख को देखकर रूस ने अपनी सेना को तुर्की के अधिकृत प्रदेशों से वापस बुला लिया। इस प्रकार रूस द्वारा तुर्की पर आक्रमण की संभावना समाप्त हो गई। फलत: इंग्लैंड और फ्रांस की स्थिति विषम हो गई।

वर्ना में जोरों का हैजा फैला। सेना वहाँ छोड़ी नहीं जा सकती थी। दूसरी ओर बिना युद्ध किए अपनी सेना को स्वदेश लौटा ले जाना दोनों ही देश के शासकों का अपनी हीनता का द्योतक जान पड़ा। अत: कुछ करने की धुन में उन्होंने क्रीमिया पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसके दक्षिणी तट पर सेवास्टोपोल में रूस का नौसेनिक अड्डा था। उसे अधिकार में करना उनहोंने अपना लक्ष्य बनाया।

दुर्धर्ष निर्णय तो इन दोनों देशों ने ले लिया पर उनमेें से किसी को भी क्रीमिया के भूभाग के संबंध में कोई जानकारी न थी। उत्साही फ्रांस ने जब इस कठिनाई का अनुभव किया तब उसने प्लेंचेट पर नैपोलियन महान्‌ की आत्मा को बुलाकर उससे सलाह लेने की बात की। रैफेट ने सेवास्टोपोल और बालक्लावा के जो मानचित्र तैयार किए थे उनका अध्ययन-मनन किया गया; रणव्यूह-विशेषज्ञ जैमिनी से सलाह ली गई किंतु कोई उत्साहजनक बात सामने नहीं आईर्। असफलता की ही संभावनाएँ जान पड़ी। इधर ब्रिटिश मंत्रिमंडल को किसी प्रकार के गंभीर चिंतन की आवश्यकता नहीं जान पड़ी। उसने क्रीमिया के नक्शे पर सामान्य ढंग से दृष्टिपात किया और कहा कि तोपों के बल पर स्थलडमरू के अवरुद्ध कर क्रीमिया के प्रायद्वीप को मुख्य भूभाग से काट देना कोई कठिन काम नहीं है। उन्हें तब तक इस बात का ज्ञान न था कि स्थलडमरू के दोनों ओर समुद्र में दो-तीन फुट से अधिक जल नहीं है। उन्होंने युद्ध के लिये आदेश जारी कर दिए।

14 सितंबर को सेनाएँ यूपोटोरिया पहुँची। 17 सितंबर को उन्होंने सेवास्टोपोल की और बढ़ना आरंभ कर दिया। 20 सितंबर को उन्होंने रूसी सेना को हराया किंतु किसी प्रकार का कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला। रूसी सेनापति टाडेलबेन ने सेवास्टोपोल के दुर्ग में घुसकर दुर्ग की रक्षा की पूरी तैयारी कर ली। आँग्ल-फ्रेंच सेना ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। आगे कोई काररवाई वे कर पाएँ, इसके पूर्व जाड़ा आ गया; समुचित खानेपीने, वस्रादि की व्यवस्था के अभाव में सैनिक दयनीय स्थिति में पड़ गए। अँगरेजी सेना की स्थिति तो और भी खराब हो गई। जो जहाज उनके लिसे सामान ला रहे थे वे बालक्लावा के बंदरगाह में भयंकर समुद्री तूफान में पड़कर नष्ट हो गए। वर्ष समाप्त होते होते 8,000 सैनिक बीमार पड़ गए। अस्पतालों की स्थिति बीमारी को घटाने के बजाय बढ़ानेवाली थी। आधे से भी कम आदमी लड़ने योग्य बचे। जब फ्लोरेंस नाइट एंगेल महिला स्वयंसेविकाओं को लेकर पहुँची और बीमारों की सेवासुश्रुषा की व्यवस्था की तब कहीं स्थिति में कुछ सुधार हुआ।

जब सर्दी कम हुई तो दूसरी मुसीबत उठ खड़ी हुई। तार के आविष्कार से त्वरित संपर्क स्थापित करने की सुविधा हो गई। अत: दोनों देशों के सदर मुकाम से जो आदेश दस दिन में पहुँचते थे अब 24 घंटे में पहुँचने लगे। इस सुविधा का उपयोग इंग्लैंड और फ्रांस ने अलग अलग ढंग से किया। इंग्लैंड के लिये सैनिक असफलता का अर्थ मंत्रिमंडल में उलटफेर की संभावना से अधिक और कुछ न था। अत: युद्ध विभाग ने उसका उपयोग केवल अपने कप्तान जेविस के स्वास्थ्य के प्रति चिंता व्यक्त करने में किया। किंतु फ्रांस के सम्राट् के लिये तो हार राजवंश के विनाश का पैगाम था। अत: वे अपने सेनापति को दनादन सुझाव, सलाह और आदेश भेजने लगे। फलत: दोनों ही देशों के सेनापतियों को तारों के इस प्रकार के आदान-प्रदान के कारण मेज से उठकर और कुछ करने और सोचने की फुरसत ही नहीं रही।

फिर भी अप्रैल आते आते उन लोगों ने सेवास्टोपोल के घेरे की गति तीव्र करने की चेष्टा की। जून में अंगरेजी सेना ने रेडान पर और फ्रांसीसी सेना ने मेलेकाफ पर आक्रमण किया परंतु रूसियों ने दोनों ही आक्रमणों को विफल कर दिया। किंतु जब आँग्ल-फ्रेंच सेना ने किनबर्न पर अधिकार कर लिया तब रूस ने युद्ध जारी रखना व्यर्थ समझा। इस समय तक फ्रेंच नरेश नैपोलियन (तृतीय) भी इस युद्ध से घबरा उठा था। वह आगे युद्ध करने के पक्ष में न था। किंतु अंगरेज, जिन्हें सेवास्टोपोल के आक्रमण में असफलता मिली थी, खीझे हुए थे। वे युद्ध जारी रखना चाहते थे किंतु अकेले रूस से युद्ध कर सकना उनके बस की बात न थी। निदान पेरिस में एक संधि हुई। इस संधि में अन्य बातों के अतिरिक्त मुख्य बात यह थी कि दान्यूब नदी में सभी देशों के जहाजों के लिए यातायात खोल दिया गया; कालासागर तटस्थ क्षेत्र घोषित किया गया; प्रत्येक देश के युद्धपोतों का वहाँ आना निषिद्ध कर दिया गया। दूसरे शब्दों में रूस को अपने युद्धपोत कालासागर से हटा लेने पड़े; किंतु पंद्रह वर्ष के भीतर ही संधि की ये बातें निरर्थक हो गई।

सामारिक दृष्टि से क्रीमिया का युद्ध केवल इस कारण स्मरण किया जाता है कि वह अंगरेजी इतिहास में सर्वाधिक अव्यवस्थित युद्ध था। यह युद्ध सह-मित्र युद्ध की कठिनाइयों और खतरों का भी एक चिरस्थायी उदाहरण है। व्यापक दृष्टि से इतना ही कहा जा सकता है कि नाना प्रकार की कठिनाइयों के होते हुए भी मित्र-सेनाओं ने अपना रणकौशल पूरी तरह प्रदर्शित करने की चेष्टा की थी। राजनीतिक दृष्टि से लाभ इतना ही हुआ कि तुर्की को रूस के त्रास से मुक्ति मिली और उसकी स्वतंत्रता कायम रही।


टीका टिप्पणी और संदर्भ