चांद्रायण

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लेख सूचना
चांद्रायण
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 182
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामांकर भट्टाचार्य

चांद्रायण एक प्राचीन तप, व्रात अथवा अनुष्ठान। पाणिनि ने इस तप का निर्देश किया है (अष्टाध्यायी 5/1/72)। धर्मसूत्रादि में इसकी प्रशंसा में कहा गया है कि यह सभी पापों के नाश में समर्थ है। जब किसी पाप का कोई प्रायश्चित्त नहीं मिलता, तब चांद्रायण ्व्रात ही वहाँ अनुष्ठेय है।

चंद्र की ह्रासवृद्धि के अनुसार चांद्रायण का अनुष्ठान किया जाता है। इस तप के नामकरण का कारण भी यही है (याड स्मृ. 3/323 की मिता. टी.)। इस व्रात के दो भेद हैं - यवमध्य और पिपीलिकामध्य। यवमध्य में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास का आहार, द्वितीया को दो ग्रास का, इस प्रकार क्रमश: बढ़ाते हुए पूर्णमासी को 15 ग्रास का आहार विहित है। उसके बाद कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 14 ग्रास, द्वितीया को 13 ग्रास, इस प्रकर क्रमश: घटाकर चतुर्दशी को एक ग्रास और अमावास्या को पूर्ण उपवास इस व्रात में निर्दिष्ट है। अल्पाहार और बीच में अधिक आहार करने में यवाकृति के साथ इसका सादृश्य होने से इसका यह नाम पड़ा। पिपीलिकामध्य कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 14 ग्रास ओर क्रमश: घटाकर कृष्ण चतुर्दशी को एक ग्रास और अमावास्या में पूर्ण उपवास, उसके बाद शुल्क प्रतिपदा को एक ग्रास, द्वितीया को दो ग्रास, इस प्रकार बढ़ाकर पूर्णमासी का 15 ग्रास इस पद्धति में अवधि के आरंभ तथा अंत में अधिक आहार और मध्य में अल्पाहार होने के कारण इसका पिपीलिका नाम सार्थक है। एक मत के अनुसार चांद्रायण के पाँच भेद हैं- यवमध्य, पिपीलिकामध्य, यतिचांद्रायण, सर्वतोमुख और शिशुचांद्रायण। चांद्रायण में जो ग्रास (अन्नमुष्टि) लिया जाता है, उसके परिमाण के विषय में भी मतभेद है। निबंधग्रंथों में व्रात और प्रायश्चित्त के विवरण में चांद्रायण का विशद विवरण द्रष्टव्य है।




टीका टिप्पणी और संदर्भ