चिंगेज खॉं

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२७, १६ फ़रवरी २०१७ का अवतरण ('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
चिंगेज खॉं
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 209
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शिवगोपाल वाजपेयी

चिंगेज खाँ (1162-1227 ई.) 13वीं शताब्दी का मंगोल सरदार, प्राय: आधे विश्व का विजेता। जन्म वैकाल झील के निकट ओनान नदी के तट पर सन्‌ 1262 में हुआ। पिता येसुकाइ याक्क मंगोल कबीले का सरदार था और माता युलुन (हौलुन) दुर्धर्ष मेर्किट कबीले की सुंदरी थी। येसुकाइ को पुत्रजन्म का संवाद तातार सरदार तेमुचिन पर विजयी होकर लौटने पर मिला। नवजात शिशु के परीक्षण पर उसे बालक की मुट्ठी में लाल पत्थर की तरह का, जमे हुए खून का, एक कतरा दिखाई दिया। इसका संबंध अंध विश्वासी येसुकाइ ने तेमुचिन पर अपनी विजय से जोड़ा अतएव उसने पुत्र का नाम ही तेमुचिन (तेमुजेन, तेमुचिन- उत्तम इस्पात तिमुर्जि); अर्थ है, 'धरती का सर्वोच्च व्यक्ति, रख दिया। चिंगेज खाँ 1206 ई. के पूर्वी इसी नाम से प्रसिद्ध था।

प्रत्येक मंगोल बालक की भाँति तेमुचिन को भी चरवाहे का कार्य करना पड़ा। 13 वर्ष का होने पर वह पिता के साथ घुड़सवारी करने लगा। ढालू मस्तक के नीचे उभरी हुई आँखों, गाढ़े गेहुएँ रंग, लाल भूरे लंबे केशों, ऊँचे कंधों, पतले, लंबे किंतु बलिष्ठ सुघड़ शरीरवाला तेमुचिन बड़ा सुदर्शन था। साथ ही अतुल शारीरिक शक्ति, कुस्ती और अस्त्रप्रयोग में दक्षता, असाधारण धैर्य, असीम सहनशीलता, दृढ़ता, आत्मविश्वास और प्रत्युत्पन्न मति, दुर्दम इच्छा और नेतृत्व शक्ति उसकी अपनी थी।

13 वर्ष की आयु में ही तेमुचिन उत्तरी गोबी प्रदेश का शासक बना। किंतु उसकी अल्पवयस्कता के कारण अधीनस्थ कबीले उसे छोड़कर दूसरे शक्शािली खानों के पास जाने लगे। फिर भी उसकी माँ के साहसिक प्रयत्नों से आधे लोग तेमुचिन के साथ रह गए। इस बीच तैद्जुत कबीले के सरदार तार्गोताई ने उत्तरी गोबी प्रदेश हड़प लिया और उससे प्राण बचाने के लिये तेमुचिन को वर्षों भागने रहा पड़ा। किंतु उस क्रूर संघर्ष में उसने न तो अपने भावी श्वसुर मुंलिक खाँ के यहाँ शरण ली और न अने पिता के मित्र करैट सरदार तोगरुल खाँ से सहायता माँगी।

17 वर्ष की आयु में तेमुचिन मंगेतर बोर्ताई (इतिहास की प्रसिद्ध सम्राज्ञी बोतोई फिदजेन) को ब्याह लाया1 शादी में प्राप्त मूल्यवान्‌ सांबल के लबादे की भेंट लेकर वह अपने धर्मपिता तोगरुल खाँ से मिलने गया। वहाँ से लौटते समय करैट सरदर ने सहायता का आश्वासन दिया। बोताई को उसके अपहर्ता मेर्किट कबीले से छोड़ने के लिये तुमुचिन को शीघ्र ही करैट से सैनिक सहायता लेनी पड़ी। तोगरुल खाँ की मित्रता से यद्यपि उसे पश्चिमी शत्रुओं से विश्रांति मिली, किंतु बुयार (Buyer) झील के तातार और तैद्जुत उसे मिटा देने के लिये आक्रमण करते ही रहे। अंत में तेमुचिन ने तार्गोताई को परास्त क अपनी पैतृक भूमि वापस ले ली। मित्र करैट कबीले द्वारा आक्रमण किए जाने पर तेमुचिन ने अपने खूँखार कियात (योद्धादल) से उन्हें भी पराजित किया। उसका उद्देश्य इन बिखरी हुई लड़ाकू जातियों के संघ का निर्माण था, जिसके लिये वह 1206 ई. तक निरंतर विभिन्न कबीलों में सफल संघर्ष करता रहा।

1206 ई. में ओनान नदी पर बुलाई गई सभी कबीलों के खानों की सभा (कुरुलताई) ने तेमुचिन को उत्तरी एशिया का शासक चुना और चिंगेज खान (महानतम शासक, मानवजाति का सम्राट्) की उपाधि से विभूषित किया। उसी समय चिंगेज खाँ ने घोषणा की कि उसके अधीन सारे कबीलों के लोग मंगोल कहलाएँगे। तुर्क मंगोल जाति के इस विशाल संघटन में बुद्धिमान और रहस्यपूर्ण उगुरु (उइगिर), सशक्त करैट, जीवटवाले याक्क मंगोल, भयावह तातर, दुर्धर्ष मेर्किट जैसे कबील के अतिरिक्त गोबी के उत्तर में श्वेत पर्वतमालाओं से चीन की महान्‌ दीवार प्तक लंबे प्रदेश भर के कुख्यात आरोही, शिकारी आदि भी संमिलित थे। उनपर नियत्रण रखने के लिये सेना के अतिरिक्त चिंगेज खाँ ने एक 'यस्सा' का भी निर्माण किया। यस्सा मंगोलों की कठोर विधिसंहिता थी जिसमें कबीलों की सुविधाजनक प्रथाओं और चिंगेज खाँ की स्वेच्छा से निर्मित कानून थे।

तुर्क मंगोल जाति के स्थायी सैन्य संगठन का श्रेय केवल चिंगेज खाँ को है। दस सैनिकों की यूनिट से लेकर दस दस की संख्या के गठित 10,000 सैनिकों की टुकड़ी तुमन (डिवीजन) कहलाती और आवश्यकतानुसार दो या तीन तुमनों को मिलाकर एक सेना होती, जिसके सेनापति ओर्खान कहे जाते थे। विशाल अश्वसेना का अनुशासन कठोर था। तलवार, भालों आदि की सजा, अचूक तीरंदाजी, निडरता, व्यूहरचना, रणनीति और असाधरण गतिशीलता ने मंगोल सेनाओं को अजेय बना दिया था।

1206 ई. में चिंगेज खाँ ने अपने एकमात्र प्रतयक्ष शत्रु नैमन सरदार पोलो को परास्त किया। दो वर्षों बाद उसके पुत्र कोश्लेक को भी मात खाकर तुर्क शासक खितान खाँ के यहाँ शरण लेनी पड़ी।

चीन विजय अभियान को सफल बनाने के लिये चिंगेज खाँ ने हिया, कालेचीन और किर्घिजों को परास्त कर चिन सम्राट् के लिंआग केलियो वंश से मित्रता कर ली। 1211 में चीन पर उसने आक्रमण कर दिया। उसका यह अभियान यद्यपि सफल रहा तथापि चीनी दुर्गों के सामने उसे पूर्ण विजय न मिल सकी। 1212 ई. में वह स्वयं तै-तांग-फू के किले की घेरेबंदी में घायल हो जाने पर गोबी लौटा। कुछ इक्के दुक्के आक्रमणों के बाद 1214 में उसने तीन ओर से भीषण आक्रमण कर राजधानी येंकिग और कुछ अन्य दुर्गों को छोड़ संपूर्ण चीन साम्राज्य को पादाक्रांत कर दिया। उसने चिन सम्राट् को संदेश भिजवाया कि वह लौटना चाहता है, क्या, वाई वाग भेंट भी नहीं भेजेगा? वस्तुत: यह चीन सम्राट् के आत्मसमर्पण की माँग थी। किंतु उसने तुरंत स्वर्गीय सम्राट् की पुत्री, अन्य राजकुमारियाँ, 3,00 घोड़े, 500 दास दासियों सहित बहुमूल्य उपहार चिंगेज खाँ के पास भेजे, जिन्हें लेकर वह कराकोरम को लौट पड़ा। चिंन सम्राट् इतना आतंकित था कि उसने कि उसने अपनी राजधानी येंकिंग से हटाकर दक्षिण में काई-फेंग फू बना ली। साथ ही चीन के कुलीनों ने मंगोलों का प्रतिरोध भी आरंभ कर दिया। इन्हें शत्रुता के कार्य मानकर चिंगेज खाँ ने पुन: आक्रमण कर दिया। येंकिंग की विजय और वाई वांग को सुंग राज्य में खदेड़कर उसने अनुभवी ओर्खान मुहली को चीन का गर्वनर बनाया और उसे ही दक्षिणी चीन जीतने का कार्य सौंपकर चिंगेज खाँ कराकोरम लौट गया।

इसी बीच भगोड़े कुशलेक ने विश्वासघात कर अपने शरणदाता खितान खाँ के तिब्बत से नीचे समरकंद तक फैले हुए राज्य को स्वायत्त कर लिया था। चिंगेज खाँ के शीघ्र ही उसका विनाश कर उसके अधिकृत भृभाग को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसके साम्राज्य की सीमा अब ख्वारिज्म को छूने लगी। उसने ख्वारिज्म के बादशाह मुहम्मद से व्यापारिक संबंध स्थापित किया। एक ही वर्ष बाद ओट्रार के गवर्नर इनल्जुक ने मंगोल व्यापारियों के एक दल को गुप्तचर समझकर कत्ल करा किया। चिंगेज खाँ द्वारा अपराधियों की माँग करने पर मदांध मुहम्मद ने मंगोल दूतमंडल के नेता को भी कत्ल करा दिया और दूसरों को, उनकी दाढ़ी जलवाकर, खदेड़ दिया। इस दुर्घटना ने युद्ध अवश्यंभावी कर किया। 1219 के वसंत में 56 वर्षीय खान विशाल लड़ाकू दल तथा तोपखाने के प्रधान के नेतृत्व में एक चीनी सेना के साथ भारत में बगदाद, और अराल समुद्र से कैस्पियन सागर तक विस्तृत ख्वारिज्म साम्राज्य को ध्वस्त करने के लिये चल पड़ा। 1220 ई. में सिरदरिया सीमा पर उसने एक साथ प्रहार किया, जूची द्वारा शाह की चार लाख सेना में प्राय: आधी नष्ट कर जेंद जीत लिया। चेपे नोमा ने एक ओर फरगाना रौंदकर खोकंद जीत समरकंद घेर लिया, दूसरी ओर चगताई ने ओट्रार को जमीन में मिला दिया और वहाँ के गवर्नर इनल्जुक को पकड़कर चिंगेज खाँ के पास भेजा। स्वयं चिंगेज खां बुखारा ध्वस्त करते हुए समरकंद पहुँचा। चिंगेज खाँ के अचानक पीछे से आ झपटने पर शाह को विवश हो फारस भागना पड़ा। पाँच महीनों के भीतर ही चिंगेज खाँ ने बुखारा और समरकंद विनष्ट कर शाह की सारी प्रतिरक्षा व्यवस्था मटियामेट कर दी। अमोघ सुबताई बहादुर और अग्नेय चेपे नोयाँ शाह को पकड़ने के लिये गए। तूले के नेतृत्व में 70,000 मंगोल सेना ने खुरासान को जीता। नेसा, मेर्व, नैशापुर आदि नगरों को तोड़ तूले ने हिरात पर कब्जा कर लिया। इसी समय तूले को मुहम्मद के उत्तराधिकारी जलालुद्दीन का पीछा करनेवाले चिंगेज खाँ का आदेश अफगानिस्तान आने के लिये मिला। जलालुद्दीन भागता हुआ भारत में घुसा। परंतु उसका पीछा करनेवाले मंगोलों ने सिंध के तट पर उसकी सेना का सफाया कर दिया। पेशावर और मलिकपुर को रौंदती हुई मंगोल सेना अंत में लौट गई। इस्लाम जगत्‌ ही सभ्यता और संस्कृति के केंद्रों को विनष्ट कर चिंगेज खाँ लूटी हुई अपार धनराशि के साथ कराकोरम लौटा।

चिंगेज खाँ ने 1223 ई. में दक्षिणी चीन के सुंग राज्य को जीतने के लिय आक्रमण किए। इन्हीं आक्रमणों के बीच 1227 में पंचग्रही योग के कारण अनिष्ट की आशंका से भयभीत चिंगेज खाँ कराकोरम के लिये लौटा पड़ा, किंतु कांसू प्रदेशमें सिंकियांग नदी तक पहुँचते ही वह बीमार पड़ गया। मंगोलिया में सेले नदी के निकट हालाओ तु के अपने यात्रामहल में पहुँचते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए (1227)। उसकी मृत्यु तब तक गुप्त रखी गई जब तक वसीयत के अनुसार ओगताई सम्राट् नहीं घोषित कर दिया गया। शव को चिंगेज खाँ की प्रत्येक स्त्री के ओर्दु (धर) में घुमाने के बाद केलेन की घाटी मैं दफना दिया गया।

चिंगेज खाँ का विश्व के महानतम विजेताओं में गिना जाना कोई आश्चर्य नहीं। उसकी मृत्यु के समय उसका साम्राज्य चीनसागर से नीपर नदी तक फैला था। यद्यपि वह योग्य उत्तराधिकारियों के अभाव में विनष्ट हो गया, तथापि उस पर तुर्कों और मामलकों ने यूरोप और मिस्र में राज्य स्थापित किए। महमूद गजनवी की तरह चिंगेज खाँ भी संहारक होते हुए निर्माता था। जहाँ उसने एक ओर संस्कृति के विशाल केंद्रों को धराशायी किया वहाँ कुशल शिल्पियों को अपनी जंगली प्रजा को वैभववृद्धि के लिये पकड़ भी लाया1 सफल सम्राटों की सुशासनसुरक्षा, व्यापक गुप्तचर व्यवस्था और आतंकपूर्ण नीति उसने अपनाई। उसका विश्वास था कि सभी धर्मों का ईश्वर एक है जिससे धर्म के नाम पर उसको कोई अत्याचार नहीं किया। यही नहीं, सभी धर्मावलंबी- मुसलमान, बौद्ध, शमन आदि- मंगोलों के साथ थे। उसकी विजयों से यूरोप ओर एशिया के व्यापारिक संपर्क, स्थल मार्ग से, बढ़े एवं भौगोलिक ज्ञान की अभिवृद्धि हुई। चिंगेज खाँ में जंगली लड़ाकू विजेता के गुणों के साथ ही दुर्गुण भी विद्यमान थे। जिस मार्ग से उसकी सेनाएँ गई, नरमुंडों के पहाड़ लग गए और संस्कृतियाँ नेस्तनाबूद हो गई। उसे इस्लाम जगत्‌ का 'ईश्वरीय प्रकोप', 'संस्कृति का शत्रु' कहा गया उसे 'धरती का श्रेष्ठ व्यक्ति', मानवजाति का सम्राट्' आदि उपाधियाँ मिलीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ