क्लेश
क्लेश
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 243 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परमेश्वरीलाल गुप्त |
क्लेश योगदर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग द्वेष एवं अभिनिवेश पाँच क्लेश हैं। (अविद्याऽस्मिता रागद्वेषभिनिवेशा: पंच क्लेशा:, योगदर्शन 2।3)। भाष्यकर व्यास ने इन्हें विपर्यय कहा है और इनके पाँच अन्य नाम बताए हैं- तम, मोह, महामोह, तामिस्र और अंधतामिस्र (यो. सू. 1।8 का भाष्य)। इन क्लेशों का सामान्य लक्षण है कष्टदायिकता। इनके रहते आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं हो सकता। अविद्या सभी क्लेशों का मूल कारण है। वह प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार चार रूपों में प्रकट होती है। पातंजल के योगदर्शन (2।5) के अनुसार अनित्य, अशुचि, दु:ख तथा अनांत्म विषय पर क्रमश: नित्य, शुचि सुख और आत्मस्वरूपता की ख्याति ‘अविद्या’ है। दूसरे शब्दों में अविद्या वह भ्रांत ज्ञान है जिसके द्वारा अनित्य प्रतीत होता है। अभिनिवेश नामक क्लेश में भी यही भाव प्रधान होता है। अशुचि को शुचि समझना अविद्या है। अर्थात् अनेक अपवित्रताओं और मलों के गेह शरीर को पवित्र मानना अविद्या है। जैन विद्वान स्थान, बीज, उपहम्भ, निस्यंद, निधन और आधेय शौचत्व के कारण शरीर को अशुचि मानते हैं किंतु वे यह स्वीकार नहीं करते कि वह अविद्याग्रस्त है। नित्यता, शुचिता, सुख और आत्म नामक भ्रमों पर आश्रित होने के कारण अविद्या को चतुष्पदा कहा गया है। संतों ने इन्हीं चार पदों को ध्यान में रखकर अविद्या (माया) का गाय की उपमा दी हैं।
अस्मिता अर्थात् अहंकार बुद्धि और आत्मा को एक मान लेना दूसरा क्लेश है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ की अनुभूति का ही नाम अस्मिता है।
सुख और उसके साधनों के प्रति आकर्षण, तृष्णा और लोभ का नाम राग हैं (सुखानुप्रायी राग:) यह तीसरा क्लेश है।
चौथा क्लेश द्वेष पतंजाति के अनुसार दुखानुशयी है। दु:ख या दु:ख जनक वृत्तियों के प्रति क्रोध की जो अनुभूति होती हैं उसी का नाम द्वेष है। क्रोध की भावना तभी जाग्रत होती है जब किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को किसी अनुचित अथवा अपने अनुकूल मान लेते हैं। यह साधारण अविद्याजन्य है। आत्मा अकर्ता है अत: द्वेष के वशीभूत होना अकारण क्लेश का आह्वान करना है।
पतंजलि के अनुसार जो सहज अथवा स्वाभाविक क्लेश विद्वान् और अविद्वान् सभी को समान रूप से होता है वह पाँचवा क्लेश अभिनिवेश है। प्रत्येक प्राणी-विद्वान्, अविद्वान् सभी की आकांक्षा रही है कि उसका नाश न हो, वह चिरजीवी रहे। इसी जिजीविषा के वशीभूत होकर मनुष्य न्याय अन्याय, कर्म कुकर्म सभी कुछ करता है और ऊँच नीच का विचार न कर पाने के कारण नित्य नए क्लेशों में बँधता जाता है।
योगशास्र में इन क्लेशों का क्षय कैवल्यप्राप्ति के लिए आवश्यक बताया गया है। यौगिक क्रियाओं द्वारा योगी इन क्लेशों का नाश करता हैं और उनका नाशकर परमार्थ की सिद्धि करता हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ